गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
6.कर्म, भक्ति और ज्ञान
और, हवि भी हमारी प्रकृति तथा पुरुष दोनों ही भावों के स्वान्तःस्थ भगवान् का ही रूप और शक्ति है; जो कुछ उनसे प्राप्त हुआ है वह उन्हींके सत्तत्त्व, उन्हींके परम सत्य और मूल स्वरूप की सेवा और पूजा में भेंट चढ़ाया जाता है। भगवत्स्वरूप मनीषी स्वयं ही पावन मंत्र बनता है; यह उन्हींकी सत्ता की ज्योति है जो भगवन्मुखी विचार के रूप में व्यक्त होती है और उस विचार के निगूढ़ आशय को मंडित किये रहने वाले तेज के स्वानुभूत ज्ञान का उदय करने वाले मंत्र में तथा उसके उस छंद में जो सनातन पुरुष के छंदों की झनकार मुनष्य को सुनाता है, यह ज्योति ही काम करती है। ज्योतिर्मय भगवान् स्वयं ही वेद हैं और वेदों के प्रतिपाद्य भी। वे ही ज्ञान हैं और श्रेय भी। ऋक, यजुः, साम अर्थात् वे ज्योतिर्मय मंत्र जो बुद्धि को ज्ञान की किरणों से प्रकाशमय करते हैं, वे शक्तिमय मंत्र जो कर्म का सही विधान करते हैं, वे शांतिमय और सामंजस्यमय मंत्र जो आत्मा की भगवदीय इच्छा का उद्गान करते हैं, स्वयं ही ब्रह्म हैं, अधीश्वर हैं। भागवत चेतना का मंत्र ज्ञानोदय कराने वाला अपना प्रकाश ले आता है, भागवत शक्ति का मंत्र कार्यसिद्धि कराने वाला संकल्प और भागवत आनंद का मंत्र आत्मसत्ता के आत्मानंद की समत्व-सिद्धि पूर्णता ले आता है। सब मंत्र-शब्द और अर्थ-महामंत्र अक्षर ब्रह्म ऊँ का ही पुष्पित रूप हैं। जो ऊँ इन्द्रियग्राह्य विषयों के रूपों में व्यक्त है, जो जगदुत्पादक आत्म-गर्भाधान की उस चिन्मयी लीला के रूप में व्यक्त है जिसके रूप और विषय प्रतीक हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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