गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 311

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
6.कर्म, भक्ति और ज्ञान


मन तब केवल एक सनातन, परमात्मीय, चिरजीवी, विश्वव्यापक, सत्तत्त्व में ही युक्त होकर रहता है, उसके लिये किसी भी चीज का मूल्य उसीके नाते होता है और उसे केवल उस एक सर्वानन्दमय पुरुष में ही आनंद आता है। उसकी वाणी का सारा प्रयास और उसकी मन-बुद्धि का सारा चिंतन एक अखंड कीर्तन होता है उस विश्वव्यापक महत्ता, प्रकाश, सौन्दर्य, शक्ति और सत्य का जो अपने तेज-प्रताप के साथ उस मानव-आत्मा के हृदय पर प्रकट हुआ है और यही उसकी उन एकमेव परम आत्मा और अनंत पुरुष की उपासना होती है। अंतरात्मा के अंदर व्यक्त होने की जो एक छटपटाहट दीर्घ काल से चली आयी है वह अब अपने-आपमें भगवान् को प्राप्त करने और प्रकृति में उन्हें अनुभव करने की एक आध्यात्मिक चेष्टा और अभीप्सा का रूप धारण करती है। सारा जीवन उन भगवान् और इस मानव-आत्मा का निरंतर योग और एकीभाव बन जाता है। यही परिपूर्ण भक्ति की रीति है; हमारे समस्त आधार और प्रकृति को यह सनातन पुरुषोत्तम में लगे हुए हृदय से होने वाले यज्ञ के द्वारा एक साथ ऊपर उठा ले जाती है।[1]जो लोग ज्ञान पर ही अधिक जोर देकर चलते हैं, वे भी अंतरात्मा और प्रकृति पर होने वाले भगवान् के दर्शन की निरंतर बढ़ने वाली, अपने अंदर लीन करने वाली और अपने रास्ते पर चलाने वाली शक्ति के सहारे उसी जगह पहुँचते हैं।

उनका यज्ञ है ज्ञान-यज्ञ और ज्ञान के ही एक अनिर्वचनीय परम भाव और आनंद से वे पुरुषोत्तम की भक्ति करने लगते हैं यह वह ज्ञान है जो भक्ति से भरा हुआ है, क्योंकि यह अपने कारणों में पूर्ण है, अपने लक्ष्य में पूर्ण है। यह परम तत्त्व को केवल एक तात्विक एकत्व अथवा अबुद्धिग्राह्य निरपेक्ष सत्य के तौर पर मानकर उसका पीछा करना नहीं है। यह परम को और विश्वरूप परमात्मा को हृदय की अनुभूति के साथ ढूंढ़ना और अधिकृत करना है; यह अनंत का पीछा करना है उनकी अनंतता में, और अनंत को ही ढूंढ़ना है उन सब पदार्थों में जो सांत हैं; यह उन एक को उनके एकत्व में और उन्हीं एक को उनके अनेकविध तत्त्वों में, उनकी असंख्य छवियों, शक्तियों और रूपों में, यहां, वहां, सर्वत्र, कालातीतता में और काल में, गुणन में, विभाजन में, उनके एक ईश्वरभाव के अनंत पहलुओं में, असंख्य जीवों में, उनके उन करोड़ों विश्वरूपों में जगत् और उसके प्राणियों के रूप में हमारे सामने हैं- एकत्वेन पृथक्तवेन बहुधा विश्वतोमुखम् [2] देखना और आलिंगन करना है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 9.13-14
  2. 9.15

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