गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द4.उपदेश का कर्म
निश्चय ही गीता में, उपनिषदों की तरह उस ममता का उपदेश है जो पुण्य और पाप से ऊपर, अच्छे और बुरे के परे है, पर वह समता केवल ब्राह्मी चेतना का अंग और उसका उपदेश उसी के लिये है जो उस मार्ग पर हो और उस परम धर्म को चरितार्थ करने के लिये काफी आगे बढ़ चुका हो। यह मनुष्य के सामान्य जीवन के लिये अच्छे बुरे से उदासीन होने का उपदेश नहीं देतीं, जहाँ इस प्रकार की शिक्षा का बहुत ही हानिकारक परिणाम हो सकता है। वैसे जीवन के लिये तो गीता का निर्देश है कि बुरे कर्म करने वाले कभी ईश्वर को नहीं पा सकते। इसलिये यदि अर्जुन केवल मनुष्य-जीवन के सामान्य धर्म को ही सर्वोत्तम प्रकार से चरितार्थ करना चाहता हो तो जिस चीज को वह पाप समझता है, नरक की वस्तु समझता है उसी को निःस्वार्थ होकर करने से उसका कुछ भी भला न होगा, चाहे एक सैनिक के नाते वह पाप उसका कर्तव्य क्यों न हो। उसकी विवेक बुद्धि जिस काम से घृणा कर रही है उससे उसे हटना ही होगा, चाहे उससे हजार कर्तव्य-कर्म धूल में न मिल जायें। हमें याद रखना चाहिये कि कर्तव्य वह भावना है जो व्यवहार में सामाजिक धारणाओं पर निर्भर है, इस सामान्य अर्थ से हम इस शब्द को और अधिक व्यापक करके यह कह सकते हैं कि अमुक कर्म हमारा अपने प्रति कर्तव्य है अथवा इस व्याप्ति से भी आगे बढ़कर यह कह सकते हैं कि सर्वस्व का त्याग करना बुद्ध का कर्तव्य था या यह भी कह सकते हैं कि गुहा में स्थिर होकर बैठना यती का कर्तव्य है! पर यह सब, स्पष्ट ही, शब्दों का खेल है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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