गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
6.कर्म, भक्ति और ज्ञान
वह ईश्वर को जगत् में नहीं देखता; उन परमेश्वर को वह कुछ भी नहीं जानता जो इन सब विविध प्राणियों और पदार्थों से परिपूर्ण नानाविध लोकों के स्वामी हैं और इन सब लोकों के सब भूतों में निवास करते हैं; उसकी अंधी आंखें उस प्रकाश को नहीं देख पातीं जिससे संसार में जो कुछ है सब भगवद्भाव की ओर उन्नत होता है और पुरुष स्वयं अपनी अंतःस्थ भगवत्ता में जाग उठता और भगवदीय तथा भगवत्सदृश होता है। जिस चीज को वह जैसे ही देखता, उसी पर लपक कर उसमें आसक्त होता है, वही चीज है अहंभाव का जीवन-सांत वस्तुओं का पीछा, उन्हीं विषयों की प्राप्ति के लिये और मन-बुद्धि, शरीर तथा इन्द्रियों की पार्थिव लालसामय तृप्ति के लिये। जो लोग मन के इस बहिर्मुखी प्रवाह में अपने-आपको बेतरह झोंक देते हैं वे निम्न प्रकृति के हाथों में जा गिरते, उसीसे चिपके रहते और उसीको अपनी आधारभूमि बना लेते हैं। मनुष्य के अंदर जो राक्षसी प्रकृति है वे उसके शिकार होते हैं। इस प्रकृति के वश में रहने वाला मनुष्य हर चीज को अपने पृथक् प्राणमय अहंकर की अत्युग्र और अदम्य भोग-लालसा पर न्योछावर कर देता है और उस राक्षस को ही अपने मन, बुद्धि, कर्म और भोग का तमोमय ईश्वर बना लेता है। अथवा वे आसुरी प्रकृति की अहंमन्य स्वेच्छा, स्वतःसंतुष्ट विचार, स्वार्थांध कर्म स्वतःसंतुष्ट पर फिर भी सदा असंतुष्ट रहने वाली बौद्धिकभावापन्न भोग-तृष्णा के द्वारा व्यर्थ के चक्कर में झोंक दिये जाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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