गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
6.कर्म, भक्ति और ज्ञान
इस तरह जो कुछ जाना जाता है, वह कोई बहिर्भूत विषय नहीं होता, बल्कि वह भागवत पुरुष, हम जो कुछ भी हैं उसकी आत्मा और प्रभु का स्वानुभूत ज्ञान होता है। इसके अटल परिणाम-स्वरूप भगवन् के प्रति एक सर्वजित् आनंदमयी वृत्ति प्रवाहित होने लगती है और एक प्रगाढ़ और भावमय प्रेम और भक्ति की धाराएं बहने लगती हैं और यही ज्ञान की आत्मा है। और यह भक्ति हृदय की कोई एकांगी वृत्ति नहीं, बल्कि जीवन का सर्वांग समर्पण है। इसलिये यह यज्ञ भी है, क्योंकि इसमें सब कर्म ईश्वरार्पण करने की क्रिया होती है, अपनी सारी क्रियाशील अंतर्वाह्य प्रकृति अपनी प्रत्येक मानसिक और प्रत्येक विषयगत क्रिया में अपने भजनीय भगवान् को समर्पित की जाती है। हमारी सारी मानसिक क्रियाएं उन्हींके अंदर होती हैं और वे ढूंढ़ती हैं अपनी सारी शक्ति और प्रयास के मूल और गंतव्य स्थल के तौर पर उन्हींको, उन्हीं आत्मा और प्रभु को। हमारी सब बाह्य क्रियाएं जगत में उन्हीं की ओर गतिमान् होतीं और उन्हींको अपना लक्ष्य बनाती हैं, भगवत्सेवाकार्य का नवारंभ कराती हैं उस जगत् में जिसकी नियामक शक्ति हमारे वे अंतःस्थ भगवान् हैं जिनके अंदर ही हम सब विश्व् और उसके समस्त जीवों के साथ सर्वभूतस्थित एकात्मा हैं। क्योंकि, जगत् और आत्मा, प्रकृति और प्रकृतिस्थ पुरुष दोनों उसी एक के चैतन्य से प्रकाशमान हैं और दोनों ही उन्हीं एक परम पुरुष पुरुषोत्तम के ही आंतर और बाह्य विग्रह हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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