गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
6.कर्म, भक्ति और ज्ञान
इस प्रकार वह ज्ञान के असीम उद्घाटन और ऊर्ध्वदर्शन और अभीप्सा के द्वारा आरोहण कर उस वस्तु को प्राप्त होता जिसकी और उसने अपने-आपको अनन्य और सर्वभाव से फेर लिया है। जीव का भगवान् की ओर सर्वभाव से यह फिरना ही मुख्यतया गीता के ज्ञान, कर्म और भक्ति के समन्वय का आधार है। इस प्रकार से भगवान को सर्वभावेन जानना यह जानना है कि वे ही एक भवगान् आत्मा में है, व्यक्तीभूत सारे चराचर जगत् में है और समस्त व्यक्त के परे हैं-और यह सब एकीभाव से और एक साथ हैं। परंतु उन्हें इस प्रकार जानना भी पर्याप्त नहीं होता जब तक कि उसके साथ हृदय और अंतःकरण भगवान् की ओर प्रगाढ़ता के साथ ऊपर न उठें, जब तक कि मनुष्य के अंदर वह ज्ञान एकमुखी और साथ ही सर्वग्राही प्रेम, भक्ति और अभीप्सा को प्रज्जवलित न कर दे। निश्चय ही वह ज्ञान जिसके संग अभीप्सा नहीं होती, जो उन्नयन से उद्दीप्त नहीं होता कोई सच्चा ज्ञान हीं है, क्योंकि ऐसा ज्ञान केवल बौद्धिक रूप से देखने की क्रिया और नीरस ज्ञान-प्रयास मात्र हो सकता है। भगवान की झांकी पा लेने के बाद तो भगवान की भक्ति और उन्हें ढूंढ़ने की सच्ची लगन प्राप्त हो ही जाती है-वह लगन हो जाती है जो केवल उन भगवान् को ही नहीं जो अपने कैवल्य रूप में हैं, बल्कि उन भगवान् को भी जो हम लोगों के अंदर हैं और उन भगवान् को भी जो यह सब जो कुछ उसके अदंर हैं, ढूंढ़ती फिरती है। बुद्धि से जानना केवल समझना है और आरंभ के लिये एक प्रभावशाली साधन हो सकता है और यदि उस ज्ञान में कोई दिली सच्चाई न हो तो नहीं भी हो सकता और न होगा ही। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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