गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 303

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
5.भवदीय सत्य और मार्ग


विश्व के सब प्राणी इसी अंतःप्रेरणा के तथा व्यक्त-सत्तासंबंधी उन विधानों के वशीभूत होकर ही कर्म करते हैं जिनके द्वारा विश्वगत सामंजस्यों के रूप में भगवान् की सर्वरूप सत्ता अभिव्यक्त होती है। इसी भागवत प्रकृति के, स्वां प्रकृति के कर्म के अंदर ही जीव अपने भवचक्र का अनुवर्तन करता है। जीव का इस या उस व्यष्टिभाव को प्राप्त होना उसी प्रकृति के प्रगतिक्रम में होने वाले स्थित्यंतरों से होता है; जीव उस भागवत प्रकृति को ही प्रकट करता है और उसे प्रकट करने में अपने विशिष्ट स्वधर्म का ही पालन करता है, चाहे प्रकृति की वह गति उच्चतर और प्रत्यक्ष हो अथवा निम्नतर और विकृत हो, ज्ञान के क्षेत्र में हो या अज्ञान के; चक्र की गति पूरी होने पर प्रकृति अपनी प्रवृत्ति से निवृत्त होकर अचला और निष्क्रिय अवस्था को लौट जाती है। अज्ञान की दशा में जीव प्रकृति के प्रवाह के अधीन होता है, अपना मालिक आप नहीं बल्कि प्रकृति के वश में होता है-अपनी प्रभुता और मुक्ति स्थिति को वह फिर से तभी प्राप्त हो सकता है जब वह लौटकर भागवत चैतन्य को पुनः प्राप्त हो। भगवान् भी प्रकृति के इस चक्र का अनुगमन करते हैं, पर उसके वश में रहकर नहीं बल्कि अंतर से ही उसका निर्माण तथा मार्ग-दर्शन करने वाली आत्मा के रूप में; उनकी सारी सत्ता इस स्थिति में निवर्तित नहीं होती, बल्कि उनकी आत्मशक्ति प्रकृति का साथ देती और उसे आकार देती है। वे अपने ही प्रकृति-कर्म के अध्यक्ष होते हैं, वह जीव नहीं जो प्रकृति में जन्मे हों बल्कि वह सिरजनहार आत्मा जो प्रकृति से जगद्रूप में व्यक्त होने वाला यह सारा विस्तार कराते हैं।

वे प्रकृति के साथ रहते और उसकी सारी क्रियाएं उससे कराते हैं, पर साथ ही वे उसके परे भी रहते हैं, जैसे प्रकृति के सारे विश्वकर्म के ऊपर कोई अपने विश्वातीत प्रभुत्व में विराज रहा हो। प्रकृति के साथ उन्हें उलझाने वाली और प्रकृति का प्रभुत्व उनके ऊपर स्थापित करने वाली किसी वासना-कामना के कारण वे किसी प्रकार प्रकृति में लिप्त या आसक्त नहीं हैं और इसलिये प्रकृति के कर्मों से बद्ध भी नहीं है, क्योंकि वे इन सब कर्मों से अनंतगुना परे और आगे हैं, कालचक्र के भूत, भविष्य और वर्तमान सभी आवर्तनों में एकरस है। कालकृत क्षरभाव उनकी अक्षर सत्ता में विकार नहीं उत्पन्न करते। सारे विश्व को व्यापने और धारण करने वाली मौन आत्मा विश्व में होने वाले परिवर्तनों से प्रभावित नहीं होती; क्योंकि विश्व के इन परिवर्तनों को धारण करते हुए भी वह इनमें भाग नहीं लेती। यह परात्पर परम विश्वातीत आत्मा इसलिये भी इनसे प्रभावित नहीं होती कि यह इनके आगे बढ़ती और सदा ही परे रहती है। पर यह कर्म भी है अपनी ही भागवत प्रकृति कर्म और भागवत प्रकृति भगवान् से कभी पृथक् नहीं हो सकती, इसलिये जो कुछ भी प्रकृति निर्मित करती है उसके अंदर भगवान् रहते ही हैं। यह संबंध ही भगवान की सारी सत्ता का संपूर्ण सतत्त्व नहीं है, पर यह जितना है उसकी किसी प्रकार उपेक्षा नहीं जा सकती।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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