गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
5.भवदीय सत्य और मार्ग
वहाँ सबका अधिवास आत्मा में है, देश या काल में नहीं; वहाँ की भित्ति आत्मिक स्वरूपता और सहस्थिति ही हो सकती है। परंतु इसके विपरीत विश्व के प्राकट्य में परम अव्यक्त विश्वातीत पुरुष के द्वारा देश और काल के अंदर विश्व का विस्तार है, और उस विस्तार में वे प्रथम उस आत्मा के रूप में प्रकट होते हैं जो ‘भूतभूत ’ है अर्थात् सब भूतों को धारण करने वाली है, वही अपनी सर्वव्यापक आत्मसत्ता में सबको धारे रहती है। और इस सर्वत्रावस्थित आत्मा के द्वारा भी वे परम पुरुष परमात्मा इस जगत को धारण किये हुए हैं ऐसा कहा जा सकता है; वे ही उसकी अदृश्य आत्मप्रतिष्ठा और सब भूतों के आरंभ का गुप्त आत्मिक कारण हैं। वे इस जगत् को उसी प्रकार धारण किये हुए हैं जिस प्रकार हमारी अंतःस्थ गुप्त आत्मा हमारे विचारों, कर्मों और व्यापारों को धारण करती है। वे मन, प्राण, शरीर में व्यापक हैं और इन्हें अपने अंदर रखे हुए, अपनी सत्ता से इन्हें धारण किये हुए से प्रतीत होते हैं। परंतु यह व्यापकता स्वयं ही चैतन्य की एक क्रिया है, जड़ की नहीं ; स्वयं शरीर आत्मा के चैतन्य की ही एक सतत क्रिया है। सब भूत इन परमात्मा के अंदर हैं; सब उनमें अवस्थित हैं, वस्तुतः जड़ रूप से नहीं, बल्कि आत्मसत्ता के ही उस विस्तृत आध्यात्मिक आधान के रूप में जिसके संबंध में हमारी यह कल्पना कि वह यही पार्थिव और आकाशीय अवकाश है, बहुत संकुचित और वैसी ही है जैसी कि भौतिक मन-बुद्धि और इन्द्रियां उसकी कल्पना कर सकती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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