गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
5.भवदीय सत्य और मार्ग
उन्हीं का सर्वोपरि सर्वसंचालक संकल्प प्राकृत कर्ममात्र के सब कारणों में मूल कारण है। व्यष्टि पुरुष में अज्ञान की अवस्था में वे वही अंतःस्थित निगूढ़ ईश्वर है जो हम सब लोगों को प्रकृति के यंत्र पर घुमाया करते हैं। इस यंत्र के साथ यंत्र के एक पुरजे के तौर पर हमारा अहंकार घूमा करता है, यह अहंकार प्रकृति के इस चक्र में बाधक और साधक दोनों ही एक साथ हुआ करता है। प्रत्येक जीव में रहने वाले ये भगवान समग्र भगवान् ही होते हैं, इसलिये हम अज्ञान की दशा को पार करके इस संबंध के ऊपर उठ सकते हैं। कारण हम अपने-आपको सर्वभूतस्थित एकमेव अद्वितीय आत्मा के साथ तद्रूप कर साक्षी और अकर्ता बन सकते हैं। अथवा हम अपने व्यष्टि-पुरुष को अपने अंतःस्थित परम पुरुष परमेश्वर के साथ मानव-आत्मा का जो संबंध है उस संबंध से युक्त कर सकते हैं और उसे उसकी प्रकृति के सब अंशों में उन परमेश्वर के कार्य का निमित्त ( निमित्त कारण और करण) तथा उसकी परा आत्मसत्ता और पुरुष-सत्ता में उसे उन आंतरिक विधान के परम, स्वतंत्र और अनासक्त प्रभुत्व का एक महान भागी बना सकते हैं। हमें इस बात को गीता में स्पष्टतया देखना होगा; एक ही सत्य के ये जो विभिन्न भाव संबंध-भेद और तज्जन्य प्रयोग-भेद से हुआ करते हैं, इनके लिये अपने विचार में अवकाश रखना होगा। अन्यथा हमें परस्पर-विरोध और विसंगति ही दीख पड़ेगी जहाँ कोई परस्पर-विरोध या विसंगति नहीं है अथवा अर्जुन की तरह हमें भी ये सब वचन एक पहैली-से मालूम होंगे और हमारी बुद्धि चकरा जायेगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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