गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
4.राजगुह्य
पर इस प्रकार दिव्य परा आत्मप्रकृति के मुक्त भाव की ओर विकसित होने के लिये यह भगवान् गुप्त रूप से निवास करते हैं और भगवान् को हम वरण कर लें। जिस कारण से यह योग संभावित और सुखसाध्य होता है वह कारण यही है कि इसका साधन करने में हम अपनी संपूर्ण प्रकृति का व्यापार उन्हीं अंतस्थ भगवान् के हाथों में सौंप देते हैं। भगवान् हमारी सत्ता अपनी सत्ता में मिलाकर और अपने ज्ञान और शक्ति को, उसमें भरकर सहज, अचूक रीति से हमारे अंदर क्रम से हमारा दिव्य जन्म कराते हैं; हमारी तमसाच्छन्न अज्ञानमयी प्रकृति को अपने हाथों में ले लेते और अपने प्रकाश और व्यापक भाव में रूपांतरिकत कर देते हैं। हम जो कुछ पूर्ण विश्वास के साथ और प्रकाश और अहंकार-रहित होकर मान लेते और उनके द्वारा प्रेरित होकर होना चाहते हैं उसे अंतस्थ भगवान् निश्चय ही सिद्ध कर देते हैं परंतु पहले अहंभाव मन-बुद्धि और प्राण को अर्थात् इस समय हम जो कुछ हैं या भासित होते हैं उसे इस दिव्यता-लाभ के लिये हमारे अंदर जो अंतस्तम गुप्त भगवत्स्वरूप हैं, उसकी शरण लेनी होगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज