गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
4.राजगुह्य
फिर उसके अंदर या बाहर कहीं वह पुराना क्षुद्र व्यष्टिभाव नहीं रह जायेगा, क्योंकि वह अपने-आपको सचेतन रूप से सबके साथ एकात्म अनुभव करेगा और उसकी बाह्य प्रकृति भी उसकी अनुभूति में विश्वगत बुद्धि, विश्वगत जीवन और विश्वगत इच्छा का एक अभिन्न अंश हो जायेगी। उसकी पृथग्भूत अहंभावापन्न वैयक्तिक सत्ता नैर्व्यक्तिक ब्रह्मसत्ता में मिलकर लीन हो जायेगी; उसकी पृथग्भूत अहंभावापन्न वैयक्तिक प्रकृति विश्वप्रकृति के अखिल कर्म के साथ एक हो जायेगी। परंतु इस प्रकार की मुक्ति साथ-साथ रहने वाली, पर अभी तक जिनकी संगति साधित नहीं हुई ऐसी, दो अनुभूतियों पर निर्भर है-विशद आत्मदर्शन और विशद प्रकृति-दर्शन। यह वह वैज्ञानिक और बौद्धिक उपरामता नहीं है जो उस जड़वादी दार्शनिक के लिये भी सर्वथा संभव है जिसके सामने किसी-न-किसी प्रकार से केवल प्रकृति का स्वरूप भासित हो गया है तथा जिसे अपनी आत्मा और आत्मसत्ता की कोई प्रतीति नहीं हुई, न यह उस बाह्य शून्यवादी साधु की ही बौद्धिक तटस्थता है जो अपनी बुद्धि के प्रकाशपूर्ण उपयोग के द्वारा अपने अहंकार के उन रूपों से छुटकारा पा जाता है जो अधिक सीमित करने वाले और उपाधि करने वाले होते हैं। यह उसे महान्, उसे अधिक जीवंत, अधिक पूर्ण आध्यात्मिक तटस्थता है जो उस परम वस्तु के दर्शन से प्राप्त होती है जो प्रकृति से बृहत्तर और उपाधि मन-बुद्धि से महत्तर है। परंतु यह उपरति भी मुक्ति और आत्मसाक्षत्कार की एक प्रारंभिक गुह्यावस्था है, भागवत रहस्य का पूरा सूत्र नहीं। क्योंकि, इतने से ही प्रकृति का सारा रहस्य नहीं खुल जाता और सत्ता का कर्म करने वाला प्रकृतिरूप अंश आत्मस्वरूप ओर तटस्थ आत्मसत्ता से अलग रह जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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