गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 287

Prev.png
गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
4.राजगुह्य


सबसे पहले उसे जगत पर उसकी जो अहंकारमयी मांग है उससे पीछे हटना होगा और यह मानकर कि करोड़ों प्राणियों में से यह एक में भी हूं, कर्म करके उस फल के लिये अपने प्रयत्न और श्रम का हिस्सा अदा करना होगा जो उसके द्वारा नहीं बल्कि विश्वव्यापी कर्म और हैतु से निर्धारित हुआ। फिर इसके बाद उसे अपने कर्तापन का भी ख्याल छोड़ देना होगा और व्यष्टिभाव से सर्वथा मुक्त होकर यह देखना होगा कि विश्वबुद्धि, विश्वसंकल्प, विश्वजीवन ही उसके अंदर और सबके अंदर कर्म कर रहा है। प्रकृति ही वैश्व कत्रीं है, उसके कर्म प्रकृति के कर्म हैं ठीक वैसे ही जैसे कि उसके अंदर प्रकृति के कर्मफल उस महान् फल के अंशमात्र हैं जिसकी ओर वह शक्ति, जो उससे (व्यष्टिपुरुष से) महान् है, विश्वकर्म को ले जाती है। यदि वह इन दो बातों को अध्यात्मतः साध ले तो उसके कर्मों का बंधन उससे बहुत दूर छूट जायेगा, क्योंकि इस बंधन की ग्रंथि तो उसकी अहंकारमयी वासना और उस वासना के कर्म में हैं तब काम-क्रोध, पाप और वैयक्तिक सुख-दुःख उसकी अंतरात्मा से झड़ जायेगें और वह आत्मा शुद्ध, महान् प्रशान्त और सब प्राणियों और पदार्थों के लिये सम होकर अंदर रहे गी। अंतःकरण में कर्म की कोई प्रतिक्रिया न होगी और उसका कोई दाग या निशान उसकी आत्मा की विशुद्धता और शांति पर न रहेगा। उसे अंतःसुख, विश्रांति, स्वच्छंदता और मुक्त अलिप्त आत्मसत्ता का अखंड आनंद प्राप्त होगा।

फिर उसके अंदर या बाहर कहीं वह पुराना क्षुद्र व्यष्टिभाव नहीं रह जायेगा, क्योंकि वह अपने-आपको सचेतन रूप से सबके साथ एकात्म अनुभव करेगा और उसकी बाह्य प्रकृति भी उसकी अनुभूति में विश्वगत बुद्धि, विश्वगत जीवन और विश्वगत इच्छा का एक अभिन्न अंश हो जायेगी। उसकी पृथग्भूत अहंभावापन्न वैयक्तिक सत्ता नैर्व्यक्तिक ब्रह्मसत्ता में मिलकर लीन हो जायेगी; उसकी पृथग्भूत अहंभावापन्न वैयक्तिक प्रकृति विश्वप्रकृति के अखिल कर्म के साथ एक हो जायेगी। परंतु इस प्रकार की मुक्ति साथ-साथ रहने वाली, पर अभी तक जिनकी संगति साधित नहीं हुई ऐसी, दो अनुभूतियों पर निर्भर है-विशद आत्मदर्शन और विशद प्रकृति-दर्शन। यह वह वैज्ञानिक और बौद्धिक उपरामता नहीं है जो उस जड़वादी दार्शनिक के लिये भी सर्वथा संभव है जिसके सामने किसी-न-किसी प्रकार से केवल प्रकृति का स्वरूप भासित हो गया है तथा जिसे अपनी आत्मा और आत्मसत्ता की कोई प्रतीति नहीं हुई, न यह उस बाह्य शून्यवादी साधु की ही बौद्धिक तटस्थता है जो अपनी बुद्धि के प्रकाशपूर्ण उपयोग के द्वारा अपने अहंकार के उन रूपों से छुटकारा पा जाता है जो अधिक सीमित करने वाले और उपाधि करने वाले होते हैं। यह उसे महान्, उसे अधिक जीवंत, अधिक पूर्ण आध्यात्मिक तटस्थता है जो उस परम वस्तु के दर्शन से प्राप्त होती है जो प्रकृति से बृहत्तर और उपाधि मन-बुद्धि से महत्तर है। परंतु यह उपरति भी मुक्ति और आत्मसाक्षत्कार की एक प्रारंभिक गुह्यावस्था है, भागवत रहस्य का पूरा सूत्र नहीं। क्योंकि, इतने से ही प्रकृति का सारा रहस्य नहीं खुल जाता और सत्ता का कर्म करने वाला प्रकृतिरूप अंश आत्मस्वरूप ओर तटस्थ आत्मसत्ता से अलग रह जाता है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रबंध -अरविन्द
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
भाग-1
1. गीता से हमारी आवश्यकता और मांग 1
2. भगवद्गुरु 9
3. मानव-शिष्य 17
4. उपदेश का सारमर्म 26
5. कुरुक्षेत्र 37
6. मनुष्य और जीवन-संग्राम 44
7. आर्य क्षत्रिय-धर्म 56
8. सांख्य और योग 68
9. सांख्य, योग और वेदांत 80-81
10. बुद्धियोग 92
11. कर्म और यज्ञ 102
12. यज्ञ-रहस्य 110
13. यज्ञ के अधीश्वर 119
14. दिव्य कर्म का सिद्धांत 128
15. अवतार की संभावना और हेतु 139
16. भगवान की अवतरण-प्रणाली 152
17. दिव्य जन्म और दिव्य कर्म 161
18. दिव्य कर्मी 169
19. समत्व 180
20. समत्व और ज्ञान 192
21. प्रकृति का नियतिवाद 203
22. त्रैगुणातीत्य 215
23. निर्वाण और संसार में कर्म 225
24. कर्मयोग का सारतत्त्व 238
भाग-2
खंड-1
1. दो प्रकृतियां 250
2. भक्ति-ज्ञान-समन्वय 262
3. परम ईश्वर 272
4. राजगुह्य 284
5. भवदीय सत्य और मार्ग 294
6. कर्म, भक्ति और ज्ञान 305
7. गीता का महावाक्य 320
8. भगवान की संभूति–शक्ति 337
9. विभूति का सिद्धांत 348
10. विश्वरूप-दर्शन 360
11. विश्वपुरुष–दर्शन 372
12. मार्ग और भक्त 380
खंड-2
13. क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ 391
14. त्रैगुणातीत 403
15. तीन पुरुष 417
16. आध्यात्मिक कर्म की परिपूर्णता 433
17. देव और असुर 449
18. त्रिगुण, श्रद्धा और कर्म 463
19. त्रिगुण,मन और कर्म 482
20. स्वभाव और स्वधर्म 497
21. परम रहस्य की ओर 518
22. परम रहस्य 533
23. गीता का सारमर्म 558
24. गीता का संदेश 570
25. अंतिम पृष्ठ 597

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः