गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
3.परम ईश्वर
सृष्टि और लय के संबंध में यह सिद्धांत विश्व-प्रपंचविषयक भारतीय तत्त्वज्ञान का एक सुनिश्चित भाग है, जिसके अनुसार यह मानी हुई बात है कि इस भव-चक्र में विश्व की सृष्टि और फिर लय, विश्व के व्यक्त होने और फिर अव्यक्त हो जाने के काल बारी-बारी से आया करते हैं। विश्व के व्यक्त होकर रहने का काल सृष्टिकर्ता ब्रह्मा का एक दिन और उसके अव्यक्त होकर रहने का काल एक रात कहता है, ये दिन और रात क्रमशः होते रहते हैं। सहस्र युग का यह एक दिन ब्रह्मा का कर्मकाल है और विश्रांतिमय सहस्र युग की ही एक रात वह समय है जब ब्रह्मा सोते हैं। दिन के निकलने पर सब भूत व्यक्त होते और रात होने पर फिर अव्यक्त में मिल जाते हैं। इस प्रकार ये सब भूत विकल्प -क्रम से सृष्टि और लय के चक्र के साथ अवश होकर घूमा करते हैं; बार-बार उत्पन्न होते, भूत्वा भूत्वा और बार-बार अव्यक्त में जा मिलते हैं। पर यह अव्यक्त भाव भगवान् का आदि दिव्य भाव नहीं है; वह एक दूसरी ही स्थिति है, इस विश्वगत अव्यक्त के परे एक विश्वातीत अव्यक्त है जो सदा अपने-आपमें स्थित है, वह व्यक्त होने वाले इस विश्वपद के विपरीत नहीं है, बल्कि इसके बहुत ऊपर और इससे भिन्न है, अव्यय है, सनातन है जो इन भूतों के नाश होने के साथ नष्ट होने के साथ नष्ट नहीं होता। ‘‘उसे अव्यक्त अक्षर कहते हैं, उसीको परम पुरुष और परमागति कहते हैं, उसे जो लोग प्राप्त होते हैं वे लौटकर नहीं आते, वही मेरा परम धाम’ है।”[1] उसे जो कोई प्राप्त करता है वह इस व्यक्त और अव्यक्त भव-चक्र से निकल आता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 8.21
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