गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
3.परम ईश्वर
जब यह हो जाता है, जब हम उस चीज को अपने सतत सामान्य अनुभव की-सी चीज बना लेते हैं तब उसी स्मृति स्वतःसिद्ध रूप से रहा करती है, क्योंकि वह हमारी चेतना का ही स्वाभाविक रूप होती है। इसे, मर्त्य जगत् से प्रयाण करने के संधिक्षण में, तब तक हमारी चेतना जो कुछ बन चुकी है उसका महत्त्व स्पष्ट हो जाता है। पर यह मरण-शय्या पर किसी तरह भगवान् का वैसा नाम ले लेना नहीं है जिसका हमारी संपूर्ण जीवनधारा और हमारी पूर्वतन मनःस्थिति से कोइ मेल न हो या जिसकी इनके द्वारा पहले से पूरी तैयारी न हुई हो। ऐसा नाम लेने में वह उद्धारक शक्ति नहीं हो सकती। यहाँ गीता जो बात बतला रही है वह चीज नहीं है जिसे सामान्य लौकिक धर्म मुक्ति का सहज मार्ग समझकर करते हैं ; सारा जीवन अपवित्रता में बीता हो और फिर भी पादरी के द्वारा अंत में सर्वप्रायश्चित करा लेने से ही ईसाई का मरण-काल में पावन हो जाना अथवा पवित्र काशीधाम में मरे या पतितपावनी गंगा के तट पर मर जाने से ही मुक्ति का मिल जाना इत्यादि जो बेसिर-पैर की बातें हैं उनसे गीता की इस बात का कोइ मेल नहीं है जिस दिव्य भाव पर मन को प्रयाणकाल में अचल रूप से स्थिर करना, होता है, वह तो वही भाव हो सकता है जिसकी ओर जीव अपने सांसारिक जीवन में प्रतिक्षण आगे बढ़ता रहा हो। ‘‘इसलिये” भगवान् कहते हैं कि, ‘‘सदा ही मेरा स्मरण करते रहो और युद्ध करो; यदि तुम्हारे मन और बुद्धि सदा ही मुझपर स्थिर और अर्पित, रहैंगे तो तुम निश्चय ही मेरे पास चले आओगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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