गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
3.परम ईश्वर
परंतु शुरू में इन पारभिाषिक शब्दों से यह बात सर्वथा स्पष्ट नहीं होती, इनसे भिन्न-भिन्न अर्थ निकल सकते हैं; इसलिये इस प्रसंग में इनके वास्तवकि अभिप्राय को स्पष्ट करा लेने के लिये शिष्य अर्जुन जो पश्न किया उसका उत्तर भगवान् अति संक्षेप से देते हैं-गीता ने कहीं भी केवल दार्शनिक दृष्टि से किसी बात की व्याख्या बहुत विस्तार से नहीं की है, वह उतनी ही बात बतलाती है और इस ढंग से बतलाती है कि जीव उस तत्त्व को ग्रहण मात्र कर ले और स्वानुभव की ओर आगे बढ़े। ‘तद्ब्रह्म’ पद उपनिषदों में भूतभाव के विपरीत स्वतःसिद्ध सद्वस्तु के लिये बारंबार प्रयुक्त हुआ है, गीता में यहाँ इस पद से अक्षरं परमम् अर्थात उस अक्षर ब्रह्मसत्ता का अभिप्राय मालूम होता है जो भगवान् का परम आत्मप्रकाश है और जिसकी अपरिवर्तनीय सनातनी सत्ता के ऊपर यह चल और विकसनशील जगत ठहरा हुआ है। अध्यात्म से अभिप्राय है ‘स्वभाव’ अथात् वह चीज जो परा प्रकृति मे जीव का आत्मगत भाव और विधान है गीता कहती है कि ‘कर्म’ ‘विसर्ग’ का नाम है अर्थात् उस सृष्टि-प्रेरणा और शक्ति का जो इस आदि मूलगत स्वभाव से सब चीजों को बाहर छोड़ती है और उस स्वभाव के ही प्रभाव से प्रकृति में सब भूतों की उत्पत्ति, सृष्टि और पूर्णता साधित करती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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