गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
2. भक्ति -ज्ञान -समन्वय
गीता ने आंरभ से ही यह कह रखा है कि दिव्य जन्म अर्थात् परा स्थिति की सबसे पहली शर्त ही यह है कि राजस काम और उसकी संतति का वध हो और इसका मतलब है पाप का सर्वथा निराकरण। पाप है ही निम्न प्रकृति की वह क्रिया जो आत्मा के द्वारा प्रकृति को आत्म-नियत और आत्म-वश करने के विरुद्ध अपनी ही मूढ़, जड़ या आसुरी राजस और तामस प्रवृत्तियों की भद्दी तुष्टि के लिये हुआ करती है। निम्न प्रकृति के इस निकृष्ट गुणकर्म के द्वारा आत्मसत्ता पर होने वाले इस भद्दे बलात्कार से छूटने के लिये हमें प्रकृति के उत्कृष्ट गुण अर्थात् सत्त्व का आश्रय लेना पड़ता है, क्योंकि सत्त्वगुण ही सतत समाधानसाधक ज्ञान, ज्योति और कर्म की प्रमादरहित विशुद्ध विधि का अनुसंधान करता रहता है। हमारे अंदर जो पुरुष है, जो प्रकृति में रहता हुआ विविध गुणवृत्तियों का अनुमोदन करता है, उसे हमारी उस सात्त्विक प्रेरण, संकल्प और स्वभाव को अनुमति देनी पड़ती है जो इस विधि का अनुसंधान करता है। हमारी प्रकृति में जो सात्त्विक इच्छा है उसे ही हमारा नियमन करना होगा, राजस-तामस इच्छा को नहीं। यही कर्माकर्म का संपूर्ण विवेक है और यही समस्त सच्ची धार्मिक नैतिक संस्कृति का अभिप्राय है; यही हमारे अंदर प्रकृति का वह विधान है जो प्रकृति के अधोमुख और अस्तव्यस्त कर्म के स्तर से उसके ऊर्ध्वमुख और सुव्यवस्थित कर्म के स्तर में विकसित होने का प्रयास करता है, काम-क्रोध-लोभ और अज्ञान में नहीं जिसका फल दुःख और अशांति है, बल्कि ज्ञान और प्रकाश में कार्य करने का प्रयास करता है जिसका फल आंतरिक सुख, समत्व और शांति है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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