गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
1.दो प्रकृतियां
पर जब भगवान् ही इन सब चीजों में है और भागवती प्रकृति ही इन सब भरमाने वाले विकारों के मूल में मौजूद है और जब हम सब जीव हैं और जीव वही भागवती प्रकृति है तब क्या कारण है कि इस माया को पार करना इतना कठिन है, इतनी यह माया दुरत्यया है? कारण यही है कि यह माया भी तो भगवान् की माया है, दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया[2] (यह गुणमयी देवी माया मेरी है)। यह स्वयं देवी है और भगवान् की ही प्रकृति का, अवश्य ही देवताओं के रूप में भगवान् की प्रकृति का, विकार है; यह देवी है; अर्थात् देवताओं की है या यह कहिये कि देवाधिदेव की है, परंतु देवाधिदेव के अपने विभक्त आत्मनिष्ठ तथा निम्न वैश्व अर्थात् सात्त्विक, राजस, तामस भाव की चीज हैं यह एक वैश्व आचरण है जो देवाधिदेव ने हमारी बुद्धि के चारों ओर बुन रखा है; ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र ने इसके ताने-बाने बुने हैं; पराप्रकृति-रूपिणी शक्ति इस बुनावट का काम अपने अंदर पूरा कर लेना है और इसमें से होकर, इसका उपयोग करके, इसे पीछे छोड़ आगे बढ़ना है, देवताओं से फिॅरकर उन परम मूल स्परूप देवाधिदेव को प्राप्त होना है जिनमें पहुँचने से ही हम देवताओं ओर उनके कर्मों का परम अभिप्राय तथा खास अपनी ही अक्षर आत्म-सत्ता के परम गुह्म आध्यात्मिक सत्यों को एक साथ जानेंगे। “जो मेरी ओर फिरते और आते हैं वे ही इस माया को पार करते हैं- मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।[3] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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