गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
1.दो प्रकृतियां
इसका कारण यही है कि वह अपने समस्त जीवन के कर्म करते समय नीचे उतरकर त्रिगुण की पकड़ में आ जाता है, अपने कर्म को ऊपर से, अपनी असली भागवती प्रकृति के द्वारा नियंत्रित नहीं करता। उसके बल का दिव्य स्वरूप इन निम्न क्रियाओं से किसी प्रकार विकृत नहीं होता, समस्त अज्ञान, मोह और रस्खलन के होते हुए भी वह मूलतः ठीक एक एक-सा ही बना रहता है। उसकी उस भागवती प्रकृति में भगवान् मौजूद रहते और उसी भागवती प्रकृति की शक्ति के द्वारा अपरा प्रकृति की अधःस्थिति की गड़बड़ी में से होकर उसे धारण करते हैं जब तक कि वह फिर से उस बीजभूत ज्योति को नही पा लेता और अपने स्वरूप के सच्चे सूर्य की ज्योति से अपने जीवन को पूर्ण रूप से प्रकाशित तथा अपनी पराप्रकृतिस्थ भागवती इच्छा की विशुद्ध शक्ति से अपने संकल्प और कर्म का नियमन नहीं करने लगता। यह तो हुआ, पर भगवान् ‘कामना’ कैसे हो सकते हैं, जबकि इसी कामना को महाशत्रु कहकर उसे मार डालने को कहा गया है? पर वह कामना त्रिगुणात्मिका निम्नगा प्रकृति का काम है जिसकी उत्पत्ति रजागुण से होती है, रजोगुणसमुद्भव:; और इसी अर्थ में हम लोग प्रायः शब्द का प्रयोग किया करते हैं। पर यह काम, जो एक आध्यात्मिक तत्त्व है, एक ऐसा संकल्प है जो धर्म के अविरुद्ध है।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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