गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 259

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
1.दो प्रकृतियां


‘‘प्राणियों में मैं काम हूँ धर्म के अविरुद्ध। ‘‘अब जो प्रकृति के इसके बाद उत्पन्न होने वाले आंतरिक भाव हैं ( मन के भाव, कामना से उत्पन्न होने वाले भाव, कामक्रोधादिकों के वेग, इन्द्रियों की प्रतिक्रियाएं, बुद्धि के बद्ध और द्वन्दात्मक खेल, मनोभाव और नैतिक भाव में होने वाले उलट-फेर ), जो सात्त्विक, राजस और तामस हुआ करते हैं तथा प्रकृति के जो त्रिगुण-कर्म हैं, वे गीता कहती है कि, स्वयं परा प्रकति के विशुद्ध भाव और कर्म नहीं हैं बल्कि उससे निकले हुए ; ‘‘हैं वे मुझसे ही-अर्थात् वे और कहीं से नहीं उत्पन्न हुए हैं, ‘‘पर मैं उनके अंदर हूं, वे मेरे अंदर हैं।”[1] यह सचमुच ही एक बहुत बड़ा पर सूक्ष्म भेद है। भगवान् कहते हैं, ‘‘मैं मूलभूत ज्योति, बल, कामना, शक्ति, बुद्धि हूँ पर उनसे उत्पन्न होने वाले ये विकार मैं निज स्वरूप से नहीं हूँ न उनमें मैं रहता हूँ परंतु फिर भी सब हैं मुझसे ही और मेरी ही सत्ता के अंदर। ‘‘इसलिये इन्हीं वचनों के आधार पर हमें सब पदार्थों का पराप्रकृति से अपरा प्रकृति में आना और अपरा से पुनः परा को प्राप्त होना देखना होगा। पहले वचन को समझने में कोई कठिनाई नहीं है। बलवान् पुरुष के अंदर बल तत्त्वगत भगवती प्रकृति तो है पर फिर भी बलवान् पुरुष कामना और आसक्ति के वश में हो जाता, पाप में गिर जाता और पुण्य की ओर जाने के लिये प्राणपण चेष्टा करता है।

इसका कारण यही है कि वह अपने समस्त जीवन के कर्म करते समय नीचे उतरकर त्रिगुण की पकड़ में आ जाता है, अपने कर्म को ऊपर से, अपनी असली भागवती प्रकृति के द्वारा नियंत्रित नहीं करता। उसके बल का दिव्य स्वरूप इन निम्न क्रियाओं से किसी प्रकार विकृत नहीं होता, समस्त अज्ञान, मोह और रस्खलन के होते हुए भी वह मूलतः ठीक एक एक-सा ही बना रहता है। उसकी उस भागवती प्रकृति में भगवान् मौजूद रहते और उसी भागवती प्रकृति की शक्ति के द्वारा अपरा प्रकृति की अधःस्थिति की गड़बड़ी में से होकर उसे धारण करते हैं जब तक कि वह फिर से उस बीजभूत ज्योति को नही पा लेता और अपने स्वरूप के सच्चे सूर्य की ज्योति से अपने जीवन को पूर्ण रूप से प्रकाशित तथा अपनी पराप्रकृतिस्थ भागवती इच्छा की विशुद्ध शक्ति से अपने संकल्प और कर्म का नियमन नहीं करने लगता। यह तो हुआ, पर भगवान् ‘कामना’ कैसे हो सकते हैं, जबकि इसी कामना को महाशत्रु कहकर उसे मार डालने को कहा गया है? पर वह कामना त्रिगुणात्मिका निम्नगा प्रकृति का काम है जिसकी उत्पत्ति रजागुण से होती है, रजोगुणसमुद्‌भव:; और इसी अर्थ में हम लोग प्रायः शब्द का प्रयोग किया करते हैं। पर यह काम, जो एक आध्यात्मिक तत्त्व है, एक ऐसा संकल्प है जो धर्म के अविरुद्ध है।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 7.12
  2. 7.4-5

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गीता प्रबंध -अरविन्द
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
भाग-1
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2. भगवद्गुरु 9
3. मानव-शिष्य 17
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6. मनुष्य और जीवन-संग्राम 44
7. आर्य क्षत्रिय-धर्म 56
8. सांख्य और योग 68
9. सांख्य, योग और वेदांत 80-81
10. बुद्धियोग 92
11. कर्म और यज्ञ 102
12. यज्ञ-रहस्य 110
13. यज्ञ के अधीश्वर 119
14. दिव्य कर्म का सिद्धांत 128
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16. भगवान की अवतरण-प्रणाली 152
17. दिव्य जन्म और दिव्य कर्म 161
18. दिव्य कर्मी 169
19. समत्व 180
20. समत्व और ज्ञान 192
21. प्रकृति का नियतिवाद 203
22. त्रैगुणातीत्य 215
23. निर्वाण और संसार में कर्म 225
24. कर्मयोग का सारतत्त्व 238
भाग-2
खंड-1
1. दो प्रकृतियां 250
2. भक्ति-ज्ञान-समन्वय 262
3. परम ईश्वर 272
4. राजगुह्य 284
5. भवदीय सत्य और मार्ग 294
6. कर्म, भक्ति और ज्ञान 305
7. गीता का महावाक्य 320
8. भगवान की संभूति–शक्ति 337
9. विभूति का सिद्धांत 348
10. विश्वरूप-दर्शन 360
11. विश्वपुरुष–दर्शन 372
12. मार्ग और भक्त 380
खंड-2
13. क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ 391
14. त्रैगुणातीत 403
15. तीन पुरुष 417
16. आध्यात्मिक कर्म की परिपूर्णता 433
17. देव और असुर 449
18. त्रिगुण, श्रद्धा और कर्म 463
19. त्रिगुण,मन और कर्म 482
20. स्वभाव और स्वधर्म 497
21. परम रहस्य की ओर 518
22. परम रहस्य 533
23. गीता का सारमर्म 558
24. गीता का संदेश 570
25. अंतिम पृष्ठ 597

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