गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
1.दो प्रकृतियां
आत्मा की जो शक्ति इस प्रकार व्यक्त हुई है, आत्मचैतन्य की जो ज्योति तथा व्यक्त वस्तुओं में उसके तेज की जो शक्ति है वही अपने विशुद्ध मूल स्वरूप में आत्म-स्वभाव है। वह शक्ति, ज्योति ही वह सनातन बीज है जिसमें से अन्य सब चीजें विकसित और उत्पन्न हुई हैं। अन्य सब चीजें इसीकी परिवर्तनशील और नमनीय अवस्थाएं हैं। इसीलिये इस सिलसिले के बीच में गीता एक सर्वसामान्य सिद्धांत के तौर पर यह बात कह जाती है कि, ‘‘हे पार्थ, मुझे सब भूतों का सनातन बीज जानो।”[2] यह सनातन बीज आत्मा की शक्ति, आत्मा की सचेतन इच्छा है, वह बीज है जिसे, गीता ने जैसा कि अन्यत्र बतलाया है कि, भगवान् महत् ब्रह्म में, विज्ञान में, विज्ञान-स्वरूप महत् में आधान, स्थापित करते हैं और उसीसे सब भूतों की उत्पत्ति होती है। यही वह आत्मशक्ति है जो सब भूतों में मूलभूत गुण-रूप से प्रकट होती और उनका स्वभाव बनती है। इस मूलभूत गुणरूप शक्ति और अपरा प्रकृति का इन्द्रिय-मनोगोचर प्राकृत विकार अर्थात् विशुद्ध वस्तुतत्त्व और इसका अपर रूप, इन दोनों में जो यथार्थ भेद है, वह इस सिलसिले के अंत में स्पष्ट रूप से दरसा दिया गया है। ‘‘बलवानों का में बल हूँ कामरागविर्जित” अर्थात् विषयों के प्राकृत भोग- सुख से सर्वथा अनासक्त। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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