गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
1.दो प्रकृतियां
अर्थात् भगवान् ही अपनी परा प्रकृति के रूप से इन सब विभिन्न इन्द्रिय-विषयों के मूल में स्थित शक्ति हैं और प्राचीन सांख्य सिद्धांत के अनुसार पंचमहाभूत- आकाशीय, तैजस, वैद्युतिक तथा वायवीय, जलीय और अन्य मूलभूत जड़रूप-इन्हीं इन्द्रिय-विषयों के भौतिक उपकरण हैं। ये पंचमहाभूत अपरा प्रकृति के मात्रात्मक या भौतिक अंग हैं और ये ही सब भौतिक रूपों के उपादान हैं। रस, स्पर्श, गंधादि पंचतन्मात्राएं अपरा प्रकृति के गुणात्मक अंग हैं। यें पंचमन्मात्राएं अपरा प्रकृति के मात्रात्मक सूक्ष्म शक्तियां हैं जिनकी क्रिया के द्वारा ही इन्द्रियगत चैतन्य का स्थूल भौतिक रूपों के साथ संबंध स्थापित होता है-भौतिक सृष्टि के संपूर्ण ज्ञान के मूल में ये ही शक्तियां हैं। भौतिक दृष्टि से जड़ ही सत् पदार्थ है और इन्द्रिय-विषय उसीमें से निकलते हैं; परंतु अध्यात्म-दृष्टि से बात इससे उलटी है। जड़-सृष्टि और जड़ उपकरण स्वयं ही किसी अन्य सत्ता से निकली हुई शक्तियां हैं और मूलतः केवल ऐसी स्थूल पद्धतियों या अवस्थाएं है जिनमें जगत् के भीतर प्रकृति के त्रिगुण के कर्म जीव के इन्द्रिय-चैतन्य के सामने प्रकट होते हैं। एकमात्र मूल सनातन सत्पदार्थ प्रकृति अर्थात् स्वभाव की ऊर्जा और उसकी गुणवत्ता ही है जो इन्द्रियों के द्वारा जीव के सम्मुख इस प्रकार प्रकट होती है। और इन्द्रियों के अंदर जो कुछ सार-तत्त्व है, परम आध्यात्मिक और अत्यंत सूक्ष्म है, वह तत्त्वतः वही वस्तु है जो वह सनातनी गुणवत्ता और शक्ति है। पर प्रकृति के अंदर जो ऊर्जा या शक्ति है वह अपनी प्रकृति के रूप में स्वयं भगवान् ही हैं; इसलिये प्रत्येक इन्द्रिय अपने विशुद्ध स्वरूप में वही प्रकृति है, प्रत्येक इन्द्रिय सक्रिय चेतना-शक्ति में स्थित भगवान् ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 7.8
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