गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
1.दो प्रकृतियां
उनके अंदर ‘एक’ और अविभक्त ब्रह्म मानो विभक्त की तरह रहता है, अविभक्तं च भूतेषु विभक्त्मिव च स्थितम्।[1] यह एकत्व महत्तर सत्य है, अनेकत्व उससे लघुतर सत्य है; यद्यपि हैं दोनों सत्य ही, उनमें से कोई भी मिथ्या-माया नहीं है। इस अध्याय-प्रकृति का एकत्व ही इस जगत् को धारण किये रहता है, ययेदं धार्यते जगत; सब भूतभावों के साथ इस जगत् की उत्पत्ति उसीसे होती है, और उसीमें प्रलयकाल में सारे जगत् और उनके प्राणियों का लय होता है, अहं कृत्स्नस्य जगत: प्रभव: प्रलयस्थ्ता।[2]परंतु इस दृश्य जगत् में, जो आत्मा से प्रकट होता है, उसी के सहारे कर्म करता है और प्रलय काल में कर्म से निवृत्त होता है, वह जीव ही नानातव का आधार है; उसे, जिसको हम यहाँ अनुभव करते हैं, हम चाहें तो बहु पुरुष कह सकते हैं अथवा नानात्व का अंतरात्मा भी कह सकते हैं। वह अपने स्वरूप से भगवान् के साथ एक है, भिन्न है केवल अपने स्वरूप की शक्ति से-इस अर्थ में भिन्न नहीं कि वह एकदम वही शक्ति नहीं है, बल्कि इस अर्थ में कि वह केवल उसी एक शक्ति के लिये आंशिक बहुविध व्यष्टिभूत कर्म में आधार का काम करता है। इसलिये सभी पदार्थ आदि में, अंत में और अपने स्थितिकाल में तत्त्वतः आत्मा या ब्रह्म ही हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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