गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
1.दो प्रकृतियां
‘‘इसी श्लोक के दूसरे चरण में उसी बात को आरंभिक आत्मा की दृष्टि से कहते हैं, ‘‘मैं ही संपूर्ण जगत् की उत्पत्ति और प्रलय हूं; मेरे परे और कुछ भी नहीं है।”[1]यहाँ इस तरह परम पुरुष पुरुषोत्तम और परा प्रकृति एकीभूत हैं; वे यहाँ एक ही सतत्त्व की ओर देखने के दो भिन्न प्रकारों के रूप में रखे गये हैं। क्योंकि जब श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस जगत् की उत्पत्ति और प्रलय मैं हूँ तब यह स्पष्ट है कि इसका मतलब परा प्रकृति अर्थात् उनके स्वभाव से है जो उत्पत्ति और प्रलय दोनों हैं। यह आत्मा ही अपनी अनन्त चेतना में परम पुरुष है और परा प्रकृति उनकी स्वभावगत अनंत शक्ति या संकल्प है- यह अपने अदंर निहित भागवत शक्ति और परम भागवत कर्म के साथ अनंत चेतना ही है। परमात्मा में से किसी चिच्छक्ति का आविर्भूत होना उत्पत्ति है, क्षर जगत् में उसकी यह प्रवृत्ति है और परमात्मा की अक्षर सत्ता और स्वात्मलीन शक्ति के अदंर इस चिच्छक्ति का अंतर्वलय होने से कर्म की निवृत्ति ही प्रलय है। परा प्रकृति से यही मूल अभिप्राय है। इस प्रकार परा प्रकृति स्वयंभू परम पुरुष की अनंत कालातीत सचेतन शक्ति है जिसमें से विश्व के सब प्राणी आविर्भूत होते और कालातीत सत्ता से काल के अदंर आते हैं। पर विश्व में इस विविध संभूति को आत्म सत्ता का आधार दिलाने के लिये स्वयं परा प्रकृति जीवरूप धारण करती है। इसी बात को दूसरी तरह से यूं कह सकते हैं कि पुरुषोत्तम का बहुविध सनातन आत्मस्वरूप् ही विश्व के इन सब रूपों में व्यष्टि पुरुष होकर प्रकट होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 7. 6 -7
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