गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
1.दो प्रकृतियां
पराप्रकृति यह है, पर यही नहीं, इससे भी अधिक बहुत कुछ है; यह तो उसकी केवल एक आत्म-स्थिति है। पराप्रकृति परम पुरुष की समग्र चिच्छशक्ति है जो जीव और जगत् के पीछे है। यह अक्षर पुरुष के अंदर आत्मा में निमज्जित रहती है; यह वहाँ भी है, पर निवृत्त में, कर्म से पीछे हटी हुई; यही क्षर पुरुष विश्व में बहिर्भूत होकर कर्म में प्रवृत्त होती है, प्रवृत्ति में आती है। यह प्रवृत्ति में अपनी सशक्तिक सत्ता के द्वारा ब्रह्म में सर्वभूतों को उत्पन्न करती और उन भूतों में उनके मूल आध्यात्मिक प्रकृति-रूप से प्रकट होती है जो उनकी बाह्यातंर प्राकृत क्रीड़ा का आधारभूत चिरंतन सत्य है। यही वह मूल भाव और शक्ति है जिसे ‘स्वभाव’ कहते हैं जो सबके स्वयं होने, प्राकृत रूप में आने वाले स्वागत तत्त्व है, सबकी प्राकृत सत्ता का स्वांतःस्थित तत्त्व और ईश्वरी शक्ति है। त्रिगुण की साम्यावस्था इस पराप्रकृति-तत्त्व से उत्पन्न होने वाली एक परिमेय एवं सर्वथा गौण क्रीड़ामात्र है। अपना प्रकृति का यह सारा नामरूपतामक कर्म, यह अखिल मनोमय, इन्द्रियगत और बौद्धिक व्यापार केवल एक बाह्य प्राकृत दृश्य है जो उसी आध्यात्मिक शक्ति और ‘स्वभाव’ के कारण संभव होता है, उससे इसकी उत्पत्ति है और उसीमें इसका निवास है, उसीसे यह है। यदि हम केवल इस बाह्य प्रकृति में ही रहें और हमारे ऊपर इसके जो संस्कार होते हैं उन्हीं से हम जगत् को समझना चाहें तो हम कदापि अपने कर्ममय अस्तित्व के मूल वास्तविक तत्त्व को नहीं पा सकते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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