गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 246

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गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द

24.कर्मयोग का सारतत्त्व


यहाँ भी हम परिवर्तन के चक्कर पर ही घूमते रहते हैं और उस शक्ति के अधीन रहते हैं जो हमारे अंदर और इस सबके अंदर है और जो अहंकार के द्वारा इस तरह चक्कर लगवाती है, पर हम स्वयं वह शक्ति नहीं होते न उसके साथ हमारा योग या मेल ही होता है। यहाँ भी कोई मुक्तावस्था या यथार्थ प्रभुत्व नहीं होता। फिर भी मुक्तावस्था संभव है। उसके लिये पहले हमें अपनी इन्द्रियों पर होने वाली बाह्य संसार की क्रियाओं से अलग हटकर अपने-आपमें आना होगा; अर्थात् हमें अंतुर्मुख होकर रहना होगा और इन्द्रियां जो अपने बाह्य विषयों की ओर स्वभावतः दौड़ पड़ती है, उन्हें रोक रखने में समर्थ होना होगा। इन्द्रियों को अपने वश में रखना और इन्द्रियां जिन चीजों के लिये तरसा करती हैं उनके बिना सुखपूर्वक रहने में समर्थ होना, सच्चे आध्यात्मिक जीवन की पहली शर्त है; जब यह हो जाता है केवल तभी यह हम यह अनुभव करने लगते हैं कि हमारे अंदर कोई आत्मा है जो बाह्य स्पर्शों से उत्पन्न होने वाले मन के विकारों से सर्वथा भिन्न वस्तु है, वह आत्मा जो अपनी गंभीरतर सत्ता में स्वयंभू, अक्षर, शांत, आत्मवान, भव्य, स्थिर, गंभीर और महान् है, स्वयं ही अपना प्रभु है और बाह्य प्रकृति की व्यग्रताभरी दौड़-धूप से सर्वथा अलिप्त है।

परंतु यह तब तक नहीं हो सकता जब तक हम काम के वश में है। क्योंकि कामना हमारे सारे बाह्य जीवन का मूल-तत्त्व है, इसे इन्द्रियगत जीवन से तृप्ति मिलती है और यह षडरिपुओं के खेल में ही मस्त रहता है। इसलिये हमें इस कामना से छुटकारा पाना होगा और प्राकृत सत्ता की इस प्रवृत्ति के नष्ट होने पर हमारे मनोविका, जो काम की तरंगो के परिणाम होते हैं, आप ही शांत हो जायेंगे; क्योंकि लाभ और हानि से, सफलता और विफलता से, प्रिय और अप्रिय के स्पर्शों से जो सुख-दुःख हुआ करते हैं, जो इन मनोविकारों का स्वागत और सत्कार करते हैं, हमारी आत्माओं के अंदर से निकल जायेंगे तब प्रशांत समता प्राप्त होगी और चूंकि हमें इस जगत् में रहना और कर्म करना है और हमारा स्वभाव कर्म के फल की आकांक्षा करने वाला है, अतः हमारा यह कर्तव्य है कि हम इस स्वभाव को बदलें और फलासक्ति को छोड़कर कर्म करें, यदि ऐसा न करेंगे तो कामना और सारे परिणाम बने रहेंगे। परंतु हममें कर्म के कर्ता का जो स्वभाव है उसे कैसे बदल सकते हैं? बदल सकते हैं अहंकार और व्यक्तित्व से अपने कर्मों को अलग करके, विवेक बुद्धि से यह देखकर कि यह सब कुछ केवल प्रकृति के गुणों का ही खेल है, और अपनी आत्मा को इस खेल से अलग करके, सबसे पहले अपनी आत्मा प्रकृति के कर्मों का साक्षी बनाके तथा उन कार्यों को उस शक्ति के हवाले करके जो वास्तव में उनके पीछे है; यह शक्ति प्रकृति के अंदर रहने वाली वस्तु है हमसे बड़ी है, यह हमारा व्यक्तित्व नहीं बल्कि वह शक्ति है जो विश्व की स्वामिनी है। परंतु मन यह सब न होने देगा; क्योंकि उसका स्वभाव इन्द्रियों के पीछे भागना और बुद्धि और इच्छाशक्ति को अपने साथ घसीट ले जाना है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रबंध -अरविन्द
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
भाग-1
1. गीता से हमारी आवश्यकता और मांग 1
2. भगवद्गुरु 9
3. मानव-शिष्य 17
4. उपदेश का सारमर्म 26
5. कुरुक्षेत्र 37
6. मनुष्य और जीवन-संग्राम 44
7. आर्य क्षत्रिय-धर्म 56
8. सांख्य और योग 68
9. सांख्य, योग और वेदांत 80-81
10. बुद्धियोग 92
11. कर्म और यज्ञ 102
12. यज्ञ-रहस्य 110
13. यज्ञ के अधीश्वर 119
14. दिव्य कर्म का सिद्धांत 128
15. अवतार की संभावना और हेतु 139
16. भगवान की अवतरण-प्रणाली 152
17. दिव्य जन्म और दिव्य कर्म 161
18. दिव्य कर्मी 169
19. समत्व 180
20. समत्व और ज्ञान 192
21. प्रकृति का नियतिवाद 203
22. त्रैगुणातीत्य 215
23. निर्वाण और संसार में कर्म 225
24. कर्मयोग का सारतत्त्व 238
भाग-2
खंड-1
1. दो प्रकृतियां 250
2. भक्ति-ज्ञान-समन्वय 262
3. परम ईश्वर 272
4. राजगुह्य 284
5. भवदीय सत्य और मार्ग 294
6. कर्म, भक्ति और ज्ञान 305
7. गीता का महावाक्य 320
8. भगवान की संभूति–शक्ति 337
9. विभूति का सिद्धांत 348
10. विश्वरूप-दर्शन 360
11. विश्वपुरुष–दर्शन 372
12. मार्ग और भक्त 380
खंड-2
13. क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ 391
14. त्रैगुणातीत 403
15. तीन पुरुष 417
16. आध्यात्मिक कर्म की परिपूर्णता 433
17. देव और असुर 449
18. त्रिगुण, श्रद्धा और कर्म 463
19. त्रिगुण,मन और कर्म 482
20. स्वभाव और स्वधर्म 497
21. परम रहस्य की ओर 518
22. परम रहस्य 533
23. गीता का सारमर्म 558
24. गीता का संदेश 570
25. अंतिम पृष्ठ 597

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