गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द24.कर्मयोग का सारतत्त्व
केवल उन मनोवैज्ञानिक तत्त्वों को देखते हुए, जिनपर ये दार्शनिक प्रभेद प्रतिष्ठित हैं- और दर्शन शास्त्र उस शास्त्र को कहते हैं जो जीवन के मनोवैज्ञानिक तथा भौतिक तथ्यों के तथा परम सद्वस्तु के साथ इनका क्या संबंध है इसके सारमर्म को हमें बौद्धिक रूप में दिखा देता है-हम यह कह सकते हैं कि हम दो तरह के जीवन बिता सकते हैं, एक है अपनी सक्रिय प्रकृति कार्यों में लीन जीव का जीवन, जिसमें जीव अपने आंतरिक और बाह्य उपकरणों के साथ तदाकार, उनसे परिच्छिन्न, अपने व्यक्तित्व से बंधा, प्रकृति के अधीन होता है; और दूसरा है आत्मा का जीवन जो इन सब चीजों से श्रेष्ठ, विशाल, नैर्व्यक्तिक, विश्वव्यापी, मुक्त, अपरिच्छिन्न, अतिवर्ती है और अपने असीम समत्व से अपनी प्राकृत सत्ता और कर्म को धारण करता पर अपनी मुक्त स्थिति और अनंत सत्ता से इनके परे रहता है। हम चाहें तो अपनी वर्तमान प्राकृत सत्ता में या अपनी महत्तर आत्मसत्ता में रह सकते हैं। यही वह पहला महान प्रभेद है जिसपर गीता का कर्मयोग प्रतिष्ठित है। इसलिये अब सारा प्रश्न और उपाय यही है कि अतंरात्मा को अपनी वर्तमान प्राकृत सत्ता की परिच्छिन्नताओं से मुक्त किया जाये। हमारे प्राकृत जीवन में सर्वप्रधान बात है हमारे जड़ प्रकृति के रूपों में, पदार्थों के बाह्य स्पर्शों के अधीन होना। ये रूप, ये स्पर्श इन्द्रियों के द्वारा हमारे प्राण के सामने आते हैं और प्राण तुरंत इन्द्रियों के द्वारा इन्हें पकड़ने के लिये दौड़ पड़ता और इनसे संबंध जोड़ता है, इनकी कामना करता, इनसे आसक्त होता और फल की इच्छा करता है। मन में होने वाली सब सुख-दुःख-वेदनाएं, उसकी सब प्रतिक्रियाएं और तरंगें, उसके ग्रहण चिंतन और अनुभव के अभ्यस्त तरीके सभी इन्द्रियों के कम का ही अनुगमन करते हैं; बुद्धि भी मन के प्रभाव में आकर अपने-आपको इन्द्रियों के इस जीवन को सौंप देती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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