गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द23.निर्वाण और संसार में कर्म
पहले सब कामनाओं को, जो कामनामूलक संकल्प से उठती हैं, एकदम त्याग देना होगा और मन के द्वारा इन्द्रियों को इतना वश में करना होगा कि वे अपनी हमेशा की अव्यवस्थित और चंचल आदत के कारण चारों ओर दौड़ती न फिरें; परंतु इसके बाद मन को ही बुद्धि से पकड़कर अंतर्मुख करना होगा। निश्चल बुद्धि के द्वारा मानस कर्म करना धीरे-धीरे बंद कर देना होगा और मन को आत्मा में स्थित करके किसी बारे में कुछ भी न सोचना होगा। जब-जब चंचल अस्थिर मन निकल भागे तब-तब उसका नियमन करके उसे पकड़कर आत्मा के अधीन लाना होगा। जब मन पूर्ण रूप से शांत हो जाये तो योगी को ब्रह्मभूत आत्मा का उच्चतम, निष्कलंक, निर्विकार परमानंद प्राप्त होता है। ‘‘इस प्रकार आवेगों और आवेशों के कलंक से छूटकर और सतत योग में लगे रहकर योगी अनायास और सुखपूर्वक ब्रह्मसंस्पर्शरूप आत्यंतिक आदंन को प्राप्त होता है।”[1]फिर भी जब तक यह शरीर है तब तक इस अवस्था का फल निर्वाण नहीं है, क्योंकि निर्वाण संसार में कर्म करने की हर एक संभावना को, संसार के प्रणियों के साथ हर एक संबंध को दूर कर देता है। प्रथम दृष्टि में यही जान पड़ता है कि यह स्थिति निर्वाण ही होनी चाहिये। क्योंकि जब सब वासनाएं और सब विकार बंद हो गये, जब मन को विचार करने की इजाजत नहीं रही, जब इसी मौन और ऐकांतिक योग का अभ्यास ही नियम हो गया, तब कर्म करना, बाह्य संस्पर्शोंवाले इस जगत् और अनित्य संसार से किसी प्रकार का संबंध रखना संभव ही कहां? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 6.28
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