गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द23.निर्वाण और संसार में कर्म
इसलिये अपने कालातीत अक्षर आत्मस्वरूप में भगवान् के साथ एक होने पर भी वह मनुष्य दिव्य प्रेम कर सकता है, क्योंकि उसके अंदर प्रकृति की क्रीड़ा के संबंध भी समाविष्ट है, और साथ ही वह भगवान् की भक्ति भी कर सकता है। छठे अध्याय के आशय की तह में पहुँचने पर यह बात और भी अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि गीता के इन श्लोकों का यही तात्पर्य है। छठे अध्याय में पांचवें अध्याय के इन्हीं अंतिम श्लोकों के भाव का विशदीकरण और पूर्ण विकास किया गया है-और इससे यह पता चलता है कि गीता इन श्लोंको को कितना महत्त्व देती है। इसलिये अब हम इसी छठे अध्याय के सार-मर्म का अति संक्षिप्त रूप से पर्यवेक्षण करेंगें। सबसे पहले भगवान् गुरु अपनी बार-बार दोहरायी गयी संन्यास के मूल तत्त्व की घोषणा पर जोर देते और उस बात को फिर से कहते हैं कि असली संन्यास आंतरिक है, बाह्य नहीं, ‘‘जो कोई कर्मफल का आश्रय किये बिना कर्तव्य कर्म करता है वही संन्यासी है, वही योगी है, वह नहीं जो यज्ञ की अग्नि जलाता न हो और अक्रिय हो। जिसे लोग संन्यास कहते हैं उसे तू योग समझ; क्योंकि जिसने अपने मन के वासनामूलक संकल्पो का त्याग नहीं किया वह योगी नहीं हो सकता।”[1] कर्म करने होगें,पर किस उद्देश्य से, किस क्रम से? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 6.1
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज