गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द23.निर्वाण और संसार में कर्म
वह योगी अब अहंकारस्वरूप नहीं रह जाता, वह छोटा-सा व्यक्त्त्वि नहीं रह जाता जो मन और शरीर से सीमित रहता है; वह ब्रह्म हो जाता है, उसकी चेतना शाश्वत पुरुष उस अक्षर दिव्यता के साथ एक हो जाती है जो उसकी प्राकृत सत्ता में व्यापप्त है। परंतु क्या यह जगत्-चैतन्य से दूर, समाधि की किसी गंभीर निद्रा में सो जाना है अथवा क्या यह प्राकृत सत्ता तथा व्यष्टि पुरुष के किसी ऐसे निरपेक्ष ब्रह्म में लय हो जाने या मोक्ष पाने की तैयारी है जो सर्वथा और सदा प्रकृति और उसके कर्मों से परे है? क्या निर्वाण को प्राप्त होने के पहले विश्च-चैतन्य से अलग हो जाना आवश्यक है अथवा क्या निर्वाण, जैसा कि उस प्रकरण से मालूम होता है, एक ऐसी अवस्था है जो जगत-चैतन्य के साथ-साथ रह सकती और अपने ही तरीके से उसका अपने अंदर समावेश भी कर सकती है? यह पिछले प्रकार की अवस्था ही स्पष्ट रूप से गीता को अभिप्रेत मालूम होती है, क्योंकि इसके बाद के ही श्लोक में गीता ने कहा है कि "वे ऋषि ब्रह्मनिर्वाण लाभ करते हैं जिनके पाप के सब दाग धुल गये हैं और जिनकी संशय- ग्रंथि का छेदन हो चुका है, जो अपने-आपको वश में कर चुके हैं और सब भूतों के कल्याण में रत हैं, सर्वभूतहिते रता:" ।[2] इसका तो प्रायः यही अभिप्राय मालूम होता है कि इस प्रकार का होना ही निर्वाण को प्राप्त होना है। परंतु इसके बाद का श्लोक बिलकुल स्पष्ट और निश्चयात्मक है, यती, (अर्थात् जो लोग योग और तप के द्वारा आत्मवशी होने का अभ्यास करते हैं) जो काम और क्रोध से मुक्त हो चुके हैं और जिन्होंने आत्मवशित्व लाभ कर लिया है उनके लिये ब्रह्मनिर्वाण उनके चारों ओर ही रहता है, वह उन्हें घेरे हुए रहता है, वे उसीमें रहते हैं, क्योंकि उन्हें आत्मज्ञान प्राप्त है।"[3] अर्थात् आत्मा का ज्ञान होना और आत्मवान् होना ही निर्वाण में रहना है। यह स्पष्ट ही निर्वाण की भावना का एक व्यापक रूप है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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