गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द23.निर्वाण और संसार में कर्म
इस पद का लक्षण है निर्वाण की परम शांति, शांतिं, निर्वाणपर्माम, और शायद इस बात को स्पष्ट करने के लिये कि यह निर्वाण बौद्धों का शून्य में निर्वाण नहीं है बल्कि आंशिक सत्ता का पूर्ण सत्ता में वैदांतिक लय है, गीता ने सदा ‘ब्रह्म-निर्वाण’ शब्द का प्रयोग किया है, जिसका अर्थ है ब्रह्म में विलीन होना। और यहाँ ‘ब्रह्म’ शब्द से अवश्य ही अभिप्राय है अक्षर ब्रह्म का, कम-से-कम मुख्यतः उस अंतःस्थ कालातीत आत्मा का जो बाह्य प्रकृति में व्यापक होते हुए भी सक्रिय रूप् से उसमें कोई भाग नहीं लेती। इसलिये हमें यह देखना होगा कि यहाँ गीता का आशय क्या है, विशेषकर यह कि यह शांति क्या पूर्ण नैष्कर्म्य की शांति ही है और क्या अक्षर ब्रह्म में निर्वाण होने का अभिप्राय क्षर के संपूर्ण ज्ञान और चैतन्य का तथा क्षर में होने वाले संपूर्ण कर्म का सर्वथा परिहार ही है? हमें कुछ ऐसा अभ्यास पड़ा हुआ है कि हम निर्वाण तथा किसी प्रकार के जगत्-जीवन और कर्म को एक-दूसरे से सर्वथा विसंगत मानते हैं और यहाँ तक कह डालना चाहते हैं कि ‘निर्वाण’ शब्द का प्रयोग स्वयं ही इस प्रश्न का निर्णय और पूर्ण उत्तर है। परंतु यदि हम बौद्ध मत का ही सूक्ष्म दृष्टि से विचार करें तो हमें यह संदेह होगा कि क्या यह विरोध बौद्धों के यहाँ भी यथार्थतः था; और यदि हम गीता को अच्छी तरह देखें तो दिखायी देगा कि यह विरोध वेदांत की परम शिक्षा के अंदर नहीं है। जो ब्रह्म की चेतना में ऊपर उठ चुका है ऐसे ब्रह्मवेत्ता, ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थित:, की पूर्ण समता की चर्चा करने के बाद उसके परवर्ती नौ श्लोंकों में गीता ने बह्मयोग और ब्रह्मनिर्वाण-संबंधी भावना को विस्तार के साथ कहा है। उसने अपना कथन यूं आरंभ किया है, ‘‘जब बाह्य पदार्थों में जीव की कोई आसक्ति नहीं रह जाती तब उस मनुष्य को वह सुख मिलता है जो आत्मा में है; ऐसा व्यक्ति अक्षय सुख भोग करता है, क्योंकि उसकी आत्मा ब्रह्म के साथ योग द्वारा युक्त हैं।”[1] गीता कहती है कि अनासक्त होना अति आवश्यक है, इसलिये कि काम-क्रोध-लोभ-मोह से छुटकारा मिले, इस छुटकारे के बिना सच्चे सुख का मिलना संभव नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 5.21
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