गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द22.त्रैगुणातीत्य
अहंभावापन्न स्वाधीन इच्छा की भावना के त्याग का अर्थ यह नहीं है कि कर्म बंद हो जायेग, क्योंकि कर्म करने वाली तो प्रकृति है और वह इस अहंभावापन इच्छा-रूपी यंत्र को हटा देने पर भी अपना कर्म वैसे ही करती रहेगी जैसे उस समय करती थी जब प्रकृति के विकासक्रम की प्रक्रिया में यह यंत्र उपयोग में नहीं आया था। प्रकृति के लिये यह संभव हो सकता है कि जिस मनुष्य ने इस यंत्र का परित्याग कर दिया हो उसके अंदर और भी महत्तर कर्म का विकास कर सकें; क्योंकि ऐसे मनुष्य का मन इस बात को अधिक अच्छी तरह से जान सकेगा कि उसकी प्रकृति अपने ही कर्म के फलस्वरूप इस समय कैसी बनी है, उसमें यह जानने की अधिक क्षमता होगी कि जो शक्तिया उसके इर्द-गिर्द हैं उनमें कौन-सी उसके विकास में साधक और कौन-सी बाधक हैं, तथा वह इस बात से भी अधिक अवगत होगा कि कौन-सी महत्तर संभावनाएं उसकी प्रकृति में छिपी पड़ी हैं जो अभी अव्यक्त हैं, लेकिन व्यक्त होने की क्षमता रखती हैं। यह मन जिन महत्तर संभवनओं को देखता है उन्हें कार्य में परिणत करने के लिये पुरुष की अनुमति प्राप्त करने का अधिक खुला हुआ मार्ग बन सकता है तथा प्रकृति के प्रत्युत्तर के लिये-और परिणमस्वरूप विकास और सिद्धि के लिये-अच्छा हो सकता है। परंतु स्वाधीन इच्छा का त्याग किसी रूप में अपनी वास्तवकि आत्मा का आभास पाये बिना, केवल अदृष्टवाद को मानकर या प्रकृति की नियति को मानकर ही, नहीं होना चाहिये; क्योंकि तब तो हम अहंकार को ही अपनी आत्मा जानते रहेंगे और अहंकार सर्वदा प्रकृति का कारण होता है अतः उसीसे कर्म करते रहेंगे और हमारी इच्छा प्रकृति का एक यंत्र बनी रहेगी, इससे हमारे अंदर कोई वास्तविक परिवर्तन न होगा, केवल हमारे बौद्धिक भाव में कुछ फेर-फार हो जायेगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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