गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द21.प्रकृति का नियतिवाद
परंतु यहाँ तक भी बुद्धि ने चेतना का पूर्ण विकास नहीं किया है; अतएव पशुओं को उनके कर्मों का जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। परमाणु को उसकी अंध गति के लिये, आग को जलाने और खाक कर देने के लिये या आंधी-तूफान को बरबादी के लिये जितना दोष दिया जा सकता है शेर को उससे अधिक दोष प्राणियों को मारने और खाने के लिये नहीं दिया जा सकता। यदि शेर प्रश्न का जवाब दे सकता तो मनुष्य की तरह यही कहता कि मैं जो कुछ करता हूँ अपनी स्वाधीन इच्छा से करता हूं; वह कर्तापन का भाव रखना चाहता और कहता, ‘‘मैं मारता हूँ मैं खाता हूँ। पर हम स्पष्ट देख सकते हैं कि मारने-खाने की क्रिया करने वाला शेर नहीं बल्कि उसके अंदर की प्रकृति है, जो मारती और खाती है; और यदि कभी शेर मारने और खाने से और गुण का कर्म है जिसे तमोगुण कहते हैं। जैसे पशु के अंदर की प्रकृति ने ही मारने की क्रिया की, वैसे ही स्वयं प्रकृति ने मारने से रुकने की क्रिया भी की। उसके अंदर आत्मा किसी भी रूप में हो पर स्वयं प्रकृति के कर्म का केवल निष्क्रिय अनुमंता ही, वह प्रकृति के कामक्रोध के वेग और कर्म में उतना ही निष्क्रिय है जितना उसके आलस्य या अकर्म में। परमाणु के समान ही पशु भी अपनी प्रकृति की यांत्रिकता के अनुसार चलता है, और किसी तरह नहीं, सदृशं चेष्टया ते स्वस्या: प्रकृते:, जैसे कोई “माया के द्वारा यंत्र पर चढ़ाया हुआ हो, यंत्रारूढ़ो मायया ।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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