गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द20.समत्व और ज्ञान
तब पाप और कलंक नहीं लग सकते; क्योंकि हमने उस सृष्टि को जीत लिया है, जो कामना और उसके कर्मों और उनकी प्रतिक्रियाओं से भरी हुई है और जो अज्ञान की है। और चूंकि अब हम दिव्य परा प्रकृति में रहने लगते हैं, इसलिये हमारे कर्म प्रमादरहित, दोष-रहित होते हैं, क्योंकि प्रमाद और दोष तो अज्ञानजनित विषमताओं की उपज हैं। सम ब्रह्म में कोई दोष नहीं, वह शुभ-अशुभ की द्वन्द्वमय भ्रांति के परे है, और ब्रह्म में निवास करते हुए हम भी शुभ-अशुभ से ऊपर उठ जाते हैं; और हम उस विशुद्ध स्थिति में रहते हुए निर्दोष रूप से, प्राणिमात्र का समान रूप से हित साधने के एकमात्र हेतु से कर्म करते हैं, हमारी अज्ञानावस्था में भी हमारे कर्मों के मूल हमारे हृद्देशस्थित ईश्वर ही हैं, पर उनकी यह क्रिया उनकी माया के द्वारा, हमारी निम्न प्रकृति के अहंकार के द्वारा होती है, ओर यह निम्न प्रकृति ही हमारे कर्मों के जटिल जाल को बुनकर तैयार करती है और बाद में इस जाल के फैलाव की जो प्रतिक्रियाएं होती हैं उनको हमारे अहंकार पर ला पटकती है, जिसका आंतरिक असर पाप-पुण्य के रूप में और बाह्य असर सुख-दुःख और सौभाग्य-दुभाग्य के रूप में होता है, और यही है कर्म की जबरदस्त सांकल। जब ज्ञान के द्वारा हम इससे मुक्त होते हैं तब भगवान्, जो अब हृदय में छिपे हुए नहीं बल्कि हमारे परम आत्मा के रूप में प्रकट हो गये हैं, हमारे कर्मों को अपने हाथों में ले लेते और जगत् के उद्धार-कार्य में हमारा निर्दोष यंत्रवत्, निमित्तमात्रम् उपयोग करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ऋग्वेद में सत्यस्त्रोत की इन धाराओं का वण्रन है। ये सिद्ध ज्ञान की धाराएं हैं, दिव्य सूर्यलोक से परिपूर्ण हैं,-यहाँ इनका प्रयोग आलक्करिक अर्थ में हुआ है, वहाँ (वेदों में) प्रत्यक्ष प्रतीक रूप में
- ↑ 5.18
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