गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 193

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गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द

20.समत्व और ज्ञान


आदित्यवत्‌ प्रकाशयति तत्परम्‌। दीर्घ एकनिष्ठ साधना से, अपनी समग्र सचेतन सत्ता को उसी आत्मतत्त्व की ओर लगाने से, उसीको अपना एकमात्र लक्ष्य बनाने से, उसीको अपनी विवेक-बुद्धि का विषय बनाने से और इस प्रकार उसको न केवल अपने अंदर बल्कि अखिल जगत् में देखने से, हम उसके साथ एक बुद्धि और एक-आत्मा हो जाते हैं, हमारी अघःसत्ता के कल्मष ज्ञान के जल[1] धुल जाते हैं। गीता कहती है कि इसका फल सब पदार्थों और सब प्राणियों के प्रति पूर्ण समत्व की सिद्धि है; और ऐसा समत्व सिद्ध होने पर ही हम अपने कर्मों का ‘ब्रह्म में’ पूर्ण समता हममें ‘आधान’ कर सकते हैं। कारण ब्रह्म सम है, समं ब्रह्म, और जब यह पूर्ण समता हममें आ जाती है तभी हम ‘‘विद्याविनयसंपन्न ब्राह्मण, गौ, हाथी,श्वान और चाण्डाल को समदृष्टि से देखते हुए”[2] सबको एक ब्रह्म ही जानते हुए और उस एकत्व में स्थित रहते हए ब्रह्म के समान ही अपने कर्मों के प्रवाह को, आसक्ति, पाप या बंधन के भय से सर्वथा मुक्त होकर, प्रकृति से निकलता हुआ देख सकते हैं।

तब पाप और कलंक नहीं लग सकते; क्योंकि हमने उस सृष्टि को जीत लिया है, जो कामना और उसके कर्मों और उनकी प्रतिक्रियाओं से भरी हुई है और जो अज्ञान की है। और चूंकि अब हम दिव्य परा प्रकृति में रहने लगते हैं, इसलिये हमारे कर्म प्रमादरहित, दोष-रहित होते हैं, क्योंकि प्रमाद और दोष तो अज्ञानजनित विषमताओं की उपज हैं। सम ब्रह्म में कोई दोष नहीं, वह शुभ-अशुभ की द्वन्द्वमय भ्रांति के परे है, और ब्रह्म में निवास करते हुए हम भी शुभ-अशुभ से ऊपर उठ जाते हैं; और हम उस विशुद्ध स्थिति में रहते हुए निर्दोष रूप से, प्राणिमात्र का समान रूप से हित साधने के एकमात्र हेतु से कर्म करते हैं, हमारी अज्ञानावस्था में भी हमारे कर्मों के मूल हमारे हृद्देशस्थित ईश्वर ही हैं, पर उनकी यह क्रिया उनकी माया के द्वारा, हमारी निम्न प्रकृति के अहंकार के द्वारा होती है, ओर यह निम्न प्रकृति ही हमारे कर्मों के जटिल जाल को बुनकर तैयार करती है और बाद में इस जाल के फैलाव की जो प्रतिक्रियाएं होती हैं उनको हमारे अहंकार पर ला पटकती है, जिसका आंतरिक असर पाप-पुण्य के रूप में और बाह्य असर सुख-दुःख और सौभाग्य-दुभाग्य के रूप में होता है, और यही है कर्म की जबरदस्त सांकल। जब ज्ञान के द्वारा हम इससे मुक्त होते हैं तब भगवान्, जो अब हृदय में छिपे हुए नहीं बल्कि हमारे परम आत्मा के रूप में प्रकट हो गये हैं, हमारे कर्मों को अपने हाथों में ले लेते और जगत् के उद्धार-कार्य में हमारा निर्दोष यंत्रवत्, निमित्तमात्रम्‌ उपयोग करते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ऋग्वेद में सत्यस्त्रोत की इन धाराओं का वण्रन है। ये सिद्ध ज्ञान की धाराएं हैं, दिव्य सूर्यलोक से परिपूर्ण हैं,-यहाँ इनका प्रयोग आलक्करिक अर्थ में हुआ है, वहाँ (वेदों में) प्रत्यक्ष प्रतीक रूप में
  2. 5.18

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