गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द19.समत्व
मुक्त पुरुष कर्मों को यज्ञ पुरुष से कर सकता है, क्योंकि मन, हृदय और आत्मा के आत्मज्ञान मे दृढ़प्रतिष्ठित होने के कारण वह आसक्ति से मुक्त होता है, उसके सारे कर्म होने के साथ ही सर्वथा लय को प्राप्त हो जाते हैं, कहा जा सकता है कि ब्रह्म की सत्ता में विलीन हो जाते हैं, बाह्यतः जो कर्ता दीख पड़ता है उसकी अंतरात्मा पर उन कर्मों का कोई प्रतिगामी परिणाम नहीं होता। स्वयं भगवान् ही उस कर्म को अपनी प्रकृति के द्वारा करते हैं, वे मानव-उपकरण के अपने नहीं रह जाते। स्वयं कर्म ब्रह्म सत्ता के स्वभाव और स्वरूप की एक शक्ति बन जाता है। गीता के इस वचन का यही अभिप्राय है-सारा कर्म ज्ञान में अपनी पूर्णता, परिणाम और परिसमाप्ति को प्राप्त होता है। ‘‘प्रज्वलित अग्नि जिस तरह ईधन को जलाकर राख कर देती है, उसी तरह ज्ञान की अग्नि सब कर्मों को भस्म कर देती है।”[2][3] इसका यह अभिप्राय हर्गिज नहीं कि जब पूर्ण ज्ञान होता है तब तब कर्म बन्द हो जाते हैं। इसका वास्तविक अभिप्राय गीता के इस श्लोक से स्पष्ट होता है कि योग्संन्यस्त्कर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम। -अर्थात् ज्ञान के द्वारा अपने सब संयश को काट डाला और योग के द्वारा कर्मो का संन्यास किया वह आत्मवान् पुरुष अपने कर्मों से नहीं बंधता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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