गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द18.दिव्य कर्मी
”वह स्वयं अक्षर अविकार्य आत्मा में सुप्रतिष्ठित होने के कारण त्रिगुणातीत हो जाता है; वह न सात्त्विक है न राजसिक न तामसी; उसके कर्मों में प्राकृतिक गुणों और धर्मों के जो परिवर्तन होते रहते हैं, प्रकाश और सुख, कर्मण्यता और शक्ति, विश्राम और जड़ता-रूपी इनका जो छन्दोबद्ध खेल होता रहता है उन्हें वह निर्मल और शांत भाव से देखता है। अपने कर्म को इस प्रकार शांत आत्मा के उच्चासन से देखना और उसमें लिप्त न होना, यह त्रैगुणातीत्य भी दिव्य कर्मी का एक महान् लक्षण है। यदि इसी विचार को सब कुछ मान लिया जाये तो इसका यह परिणाम निकलेगा कि सब कुछ प्रकृति की ही यांत्रिक नियति है और आत्मा इस सबसे सर्वथा अलग है, उस पर कोई जिम्मेदारी नहीं, पर गीता पुरुषोत्तम-तत्त्व की प्रकाशमान और परमेश्वरवादी भावना के द्वारा इस अपूर्ण विचार की भूल का निवारण करती है। गीता इस बात को स्पष्ट रूप से कहती है कि सब कुछ के मूल में प्रकृति ही नहीं है जो अपने कर्मों का यंत्रवत् निर्णय करती हो, बल्कि प्रकृति को प्रेरित करता है उन पुरुषोत्तम का संकल्प, जिन्होंने धार्तराष्ट्रों को पहले से ही मार रखा है, अर्जुन जिनका मानव-यंत्र मात्र है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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