गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द18.दिव्य कर्मी
कर्म का सच्चा संन्यास ब्रह्म कर्मों का आधान करना ही है। ‘‘जो संग त्याग करके, ब्रह्म में कर्मों का आधान करके (या ब्रह्म को कर्मों का आधार बना के ) कर्म करता है उसे पाप का लेप नहीं लगता जैसे कमल के पत्ते पर पानी नहीं ठहरता। ”इसलिये योगी पहले शरीर से, मन से, बुद्धि से अथवा केवल कमेन्द्रियों से ही आसक्ति को छोड़कर आत्मशुद्धि के लिये कर्म करते हैं। कर्मफलों की आसक्ति को छोड़ने से ब्रह्म के साथ होकर अंतरात्मा ब्राह्मी स्थिति की ऐकांतिक शांति लाभ करता है, किंतु जो ब्रह्म के साथ इस प्रकार युक्त नहीं है वह फल में आसक्त और काम-संभूत कर्म से बंधा रहता है। यह स्थिति, यह पवित्रता, यह शांति जहाँ एक बार प्राप्त हो जाती है वहाँ देही आत्मा अपनी प्रकृति को पूर्णतः वश में किये हुए, सब कर्मो का ‘मनसा’ (मन से, बाहर से नहीं) संन्यास करके ‘‘नवद्वारा पुरी में बैठा रहता है, वह न कुछ करता है न कुछ कराता है।” कारण यह आत्मा ही सबके अंदर रहने वाली नैर्व्यक्तिक आत्मा है, परब्रह्म है, प्रभु है, विभु है जो नैर्व्यक्तिक होने के नाते न तो जगत् के किसी कर्म की सृष्टि करता है न अपने को कर्ता समझने वाले मानसिक विचार की और न ही कर्मफल-संयोगरूप कार्यकारणसंबंध की। इस सबकी सृष्टि मनुष्य में प्रकृति के द्वारा या स्वभाव द्वारा होती है, स्वभाव का अर्थ है आत्म-संभूति का मूल तत्त्व। सर्वव्यापी नैर्व्यक्त्कि आत्मा न पाप ग्रहण करती है न पुण्य। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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