गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द18.दिव्य कर्मी
सामान्य मनुष्य अपने सुख के लिये बाह्य पदार्थों पर निर्भर है; इसीसे उसमें वासना-कामना होती है, इसीसे उसमें क्रोध-क्षोभ, सुख-दुःख, हर्ष-शोक होते हैं, इसलिये वह सब वस्तुओं को शुभा-शुभ के कांटे से तौलता है। परंतु दिव्य आत्मा पर इनमें से किसी का कोई असर नहीं पड़ सकता; वह किसी प्रकार की निर्भरता के बिना सदा तृप्त रहता है, क्योंकि उसका आनंद, उसकी दिव्य तृप्ति, उसका सुख, उसकी सुप्रसन्न ज्योति सदा उसके अंदर वर्तमान है, उसके रोम-रोम में व्याप्त है, आत्मरति:, अंत: सुखोऽन्तरारामस्तयांतर्ज्योतिरेव य:। वह बाह्य पदार्थों में जो सुख लेता है वह उनके कारण नहीं होता, उस रस के लिये नहीं जिसे वह उनमें ढूंढ़ता और खो भी सकता है, बल्कि उनमें स्थित आत्मा के लिये, उनके द्वारा भगवान् की अभिव्यक्ति के लिये, उनमें स्थित शाश्वत तत्त्व के लिये होता है, जिसे वह कभी नहीं खो सकता है। इन पदार्थों के बाह्य स्पर्शों में उसकी आसक्ति नहीं होती, बल्कि अपने अंदर मिलने वाला आनंद ही उसे सर्वत्र मिलता है; क्योंकि उसकी आत्मा ही उनकी आत्मा है, वह चराचर प्राणियों की आत्मा के साथ एक हो गया है ‘उनके विभिन्न नामरूपों के हाते हुए भी उनके अंदर जो समब्रह्म है उसके साथ वह एक हो गया है, ब्रह्मयोग्युक्तात्मा, सर्वभूतात्मभूतात्मा। प्रिय पदार्थ के स्पर्श से उसे हर्ष नहीं होता, अप्रिय से उसे शोक नहीं होता; पदार्थ के, मित्रों के या शत्रुओं के घाव उसकी दृष्टि की स्थिरता भंग नहीं कर सकते, न उसके हृदय को मोहित कर सकते हैं; उपनिषद् के शब्दों में यह आत्मा अपने स्वरूप से ‘अव्रणम्’ होता है, उस पर कोई घाव, कोई क्षति नहीं होता। वह सब पदार्थों में वही अक्षय आनंद भोग करता है, सुखमक्षयमश्नुते । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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