गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द18.दिव्य कर्मी
इन लोगों के प्रति उसके मन में क्रोध या घृणा नहीं हो सकती क्योंकि दिव्य प्रकृति के लिये क्रोध और घृणा विजातीय चीजें हैं। असुर की अपने विरोधी को चूर-चूर करने और उसका सिर उतार लेने की इच्छा, राक्षस की संहार करने की निर्दयतापूर्ण लिप्सा का मुक्त पुरुष की स्थिरता, शांति, विश्वव्यापी सहानुभूति और समझ में होना असंभव है। उसमें किसी को चोट पहुँचाने की इच्छा नहीं होती अपितु सारे संसार के लिये मैत्री और करुणा का भाव होता है, पर यह करूणा उस दिव्य आत्मा की करुणा है जो मनुष्यों को अपने उच्च स्थान से करुणाभरी दृष्टि से देखता है, सब जीवों को अपने अंदर प्रेम से ग्रहण करता है, यह सामान्य मनुष्य की वह दीनताभरी कृपा नहीं हो जो हृदय, स्नायु और मांस का दुर्बल कंपनमात्र होती है। वह शरीर से जीवित रहने को भी उतनी बडी़ चीज नही मानता, बल्कि शरीर के परे जो आत्म-जीवन है उसे जीवन मानता और शरीर को केवल एक उपकरण समझता है। वह सहसा संग्राम और संहार में प्रवृत्त न होगा, पर यदि धर्म के प्रवाह में युद्ध करना ही पड़े तो वह उसे स्वीकार करेगा और जिनके बल और प्रभुत्व को चूर्ण करना है और जिनके विजयी जीवन के उल्लास को नष्ट करना है उनके साथ भी उसकी सहानुभूति होगी और वह उदार समबुद्धि और विशुद्धि बोध के साथ ही युद्ध में प्रवृत्त होगा। कारण मुक्त पुरुष सबमें दो बातों को देखता है, एक यह कि भगवान् घट-घट में समरूप में वास करते हैं और दूसरी यह कि यह जो नानाविध प्राकट्य है वह अपनी क्षणस्थायी परिस्थिति में ही विषम है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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