गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द18.दिव्य कर्मी
पर मुक्त पुरुष तो इसके भी परे चला जाता है, वह इन संघषों के ऊपर उठ जाता है तथा साक्षिस्वरूप ज्ञानरूप आत्मा की पवित्रता में सुप्रतिष्ठित हो जाता है। अब पाप झड़कर गिर गया है और उसे अच्छे कर्मों से न पुण्य मिलता है न उसके पुण्य की वृद्धि होती है, और इसी तरह किसी बुरे कर्म से पुण्य की हानि या नाश भी नहीं होता, वह दिव्य और निरहं प्रकृति की अविच्छेद्य और अपरिवर्तनीय पवित्रता के शिखर पर चढ़ गया है और वहीं आसन जमाकर बैठा है। उसके कर्मों का आरम्भ पाप-पुण्य के बोध से नहीं होता, न ये उस पर लागू होते हैं।अर्जुन अभी अज्ञान में है। वह अपने हृदय में सत्य और न्याय की कोई पुकार अनुभव कर सकता है और मन-ही-मन सोच सकता है कि युद्ध से हटना पाप होगा, क्योंकि अधर्म की विजय होना से अन्याय, अत्याचार और अशुभ कर्म छा जाते हैं और इससे मनुष्य और राष्ट्र पीड़ित होते हैं। और इस अवसर पर यह जिम्मेवारी उसी के सिर पर आ पड़ेगी। अथवा उसके दया में हिंसा और मारकाट के प्रति घृणा पैदा हो सकती है और वह मन-ही-मन यह सोच सकता है कि खून बहाना तो हर हालत में पाप है और रक्तपात का समर्थन किसी अवस्था में नहीं किया जा सकता। धर्म और युक्ति की दृष्टि से ये दोनों मनोभाव ही एक-से मालूम होंगे; इनमें से कौंन-सा मनोभाव किसके मन पर हावी होगा या दुनिया की दृष्टि में जंचेगा यह बात तो देश, काल, पात्र और परस्थिति पर निर्भर है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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