गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द18.दिव्य कर्मी
क्योंकि बाह्य कर्म पाप नहीं है, बल्कि वैयक्त्कि संकल्प, मन और हृदय की जो अशुद्ध प्रतिक्रिया कर्म के साथ लगी रहती और कर्म कराती है उसीका नाम पाप है; नैर्व्यक्तिक आध्यात्मिक मनुष्य तो सदा ही शुद्ध, अपापविद्व होता है और उसके द्वारा होने वाले कार्य में उसकी सहज शुद्धता आ जाती है। यह आध्यात्मिक नैर्व्यक्तिक दिव्य कर्मी का तीसरा लक्षण है। किसी प्रकार की महत्ता या विशालता को प्राप्त सभी मनुष्य यह अनुभव करते हैं कि कोई नैर्व्यक्तिक शक्ति या प्रेम या संकल्प ज्ञान उनके अंदर काम कर रहा है, पर वे अपने मानव- व्यक्तित्व की अहंभावापन्न प्रतिक्रियाओं से मुक्त नहीं हो पाते, और कभी-कभी तो ये प्रतिक्रियाएं अत्यंत प्रचंड होती हैं। परुंतु मुक्त पुरुष इन प्रतिक्रियाओं से सर्वथा मुक्त होता है; क्योंकि वह अपने व्यक्तित्व को नैर्व्यक्त्कि पुरुष में निक्षेप कर देता है और अब उसका व्यक्त्त्वि उसका अपना नहीं रह जाता, उन भगवान् पुरुषोत्तम के हाथों में चला जाता है जो सब सांत गुणों को अनंत और मुक्त भाव से व्यवहार करते हैं पर किसी द्वारा बद्व नहीं होते। मुक्त पुरुष आत्मा हो जाता है और प्रकृति के गुणों का पुंज-सा नहीं बना रहता; और प्रकृति के कर्म के लिये उसे व्यक्तित्व का जो कुछ आभास बाकी रह जाता है वह एक ऐसी चीज होती है जो बंधनमुक्त, उदार, नमनीय और विश्वव्यापक है; वह भगवान् की अनंत सत्ता का एक विशु पात्र बन जाता है, पुरुषोत्तम का एक जीवंत छदरूप हो जाता है। इस ज्ञान, निष्कामता और नैर्व्यक्तिकता का फल है पुरुष और प्रकृति में पूर्ण समत्व। समत्व दिव्य कर्मी का चैथा लक्षण है। गीता कहती है कि वह ‘द्वन्द्वातीत’ हो जाता है, वह सफलता और विफलता, जय और पराजय को अविचल भाव से और समदृष्टि से देखता है, इतना ही नहीं वह सभी द्वन्दों के परे उस स्थिति में पहुँच जाता है जहाँ द्वन्दों का सामंजस्य होता है। जिन बाह्य लक्षणों से मनुष्य जगत् की घटनाओं के प्रति अपनी मनोवृत्ति का रूख निश्चित करते हैं वे उसकी दृष्टि में गौण और यांत्रिक होते हैं। वह उनकी उपेक्षा नहीं करता, पर उनसे परे रहता है। शुभ और अशुभ का भेद कामना के अधीन मनुष्य के लिये सबसे बड़ी चीज है, पर निष्काम आत्मवान पुरुष के लिये शुभ और अशुभ दोनों ही एक से ग्रह्म हैं, क्योंकि इन दोनों के संमिश्रण से ही शाश्वत श्रेय के विकासशील रूप निर्मित होते हैं। उसकी हार तो हो ही नहीं सकती, क्योंकि उसकी दृष्टि के अनुसार प्रकृति के कुरुक्षेत्र अर्थात् धर्मक्षेत्र में सब कुछ भगवान् की विजय की ओर जा रहा है, इस कर्मक्षेत्र में जो विकसनशील धर्म का क्षेत्र है, कुरुक्षेत्र युद्ध के प्रत्येक मोड़ का नक्शा युद्ध के अधिनायक, कर्मों के स्वामी, धर्म के नेता की पूर्वदृष्टि से पहले ही खींचकर तैयार किया जा चुका है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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