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गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द
16.भगवान् की अवतरण-प्रणाली
ऐसा है गीता अवतार-विषयक सिद्धांत भगवान् की अवतरण-प्रणाली की यहाँ जो विस्तार किया गया और इसी तरह पहले के अध्याय में अवतार की संभावना के विषय में जो आलोचना की गयी, इसका कारण यह है कि इस प्रश्न को इसके सभी पहलुओं से देखना और मनुष्य की तर्कबुद्धि में इस बारें में जो कठिनाइया खड़ी हो सकती है उनका सामना करना आवश्यक था। यह सम्भव है कि भौतिक रूप में ईश्वर के अवतार का गीता में विशेष विस्तार नहीं है, पर गीता की शिक्षा का जो चक्र है उसकी श्रृखंला में इसका आना विशिष्ट स्थान है जो गीता की संपूर्ण योजना में अनुस्यूत है। गीता का ढ़ांचा यही है कि अवतार एक विभूति को, उस मनुष्य को जो मानता की ऊंची अवस्था में पहुँच चुका है, दिव्य जन्म और दिव्य कर्म की ओर ले जा रहे हैं इनमें कोई संदेह नहीं कि मानव जीव को अपने तक उठाने के लिये भगवान् का अवतार लेना ही मुख्य बात है इन्हीं आंतरिक कृष्ण, बुद्ध या ईया से ही असली मतलब है। पर जिस प्रकार आंतरिक विकास के लिये बाह्म जीवन भी अंतन्त महत्त्वपूर्ण साधन है, वेसे वैसे ही बाह्म अवतार भी इस महान आध्ययात्कि अभिव्यक्ति के लिये किसी प्रकार कम महत्त्व की वस्तु नहीं है। मानसिक और शारीरिक प्रकृति की परिपूर्णता आंतर सद्वस्तु के विकास में सहायक होती है, फिर यही आंतरिक सद्वस्तु और अधिक शक्ति के साथ जीवन के द्वारा अधिक उत्कृष्ट रूप में अपने-आपको प्रकट करती है। मानवजाति में भागवत अभिव्यक्ति ने आध्यात्मिक सद्वस्तु और मानसिक तथा भौतिक अभिव्यक्ति के बीच, परस्पर सतत आदान-प्रदान के द्वारा संगोपन और प्रकटन के चक्रों में गति करना स्वीकार किया है।
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