गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द16.भगवान् की अवतरण-प्रणाली
इसलिये भगवान् की विभूति, नैर्व्यक्तिक भाव से उनके गुणों की अभिव्यक्ति शक्ति है, वह उनका बहिः प्रवाह है चाहे ज्ञान के रूप में हो अथवा शक्ति प्रेम, बल या अन्य किसी रूप में; और वैयक्तिक भाव से यह वह मनोमय रूप् और सजीव सत्ता है जिसमें वह शक्ति सिद्ध होती और अपने महत् कर्म करती है।” इस आंतरिक और बाह्म सिद्धि को प्राप्त करने में कोई प्रधानता, भागवत गुण की कोई महत्तर शक्ति, कोई कारगर ताकत ही विभुति का लक्षण है। मानव विभूति भावत सिद्धि प्राप्त करने के लिये मानवजाति के संघर्ष का अग्रणी नेता होती है। कारलाइल के अनुसार मनुष्यों के अंदर एक भागवत शक्ति। “ वृष्णियों में वासुदेव (श्री कृष्ण ) हूं, पाण्डवों में धन्नजय (अर्जुन ) हूं, मुनियों में व्यास और कवियो में उशना कवि हूं” अर्थात प्रत्येक कोटि या कक्षा में सर्वोत्तम, प्रत्येक समूह में सबसे महान् जिन-जिन गुणों और कर्मों के द्वारा उस समूह की विश्ष्टि आत्मशक्ति प्रकट होती है उन गुणों और कर्मों का प्रकाश जिसके द्वारा सर्वोत्तम रूप से प्रकट होता है वह ईश्वर की विभूति है। जीव की शक्तियों का यह उत्कर्ष भागवत प्राकट्य के क्रम में अत्यंत आवश्यक है। कोई भी महान पुरुष जो हमारी औसत कक्षा के ऊपर उठ जाता है वह अपने कर्म से साधारण मानवजाति को ऊपर उठा देता है; वह हमारी भागवत संम्भावनाओं का एक सजीव आश्वासन, परमेश्वर की एक प्रतिश्रुटि और भागवत प्रकाश की एक प्रभा तथा भागवत शक्ति का एक उच्छ्वास होता है। मनुष्यों में महामनुस्वी और वीर पुरुषों को देवता की तरह पूजने की जो स्वभाविक प्रवृत्ति होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज