गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द15.अवतार की संभावना और हेतु
यह सांत बाह्य परिच्छिन्न रूप आखिर क्या है-यह अनंत के ही विभिन्न चिद्भावों के सामने अनंत की अपनी अभिव्यक्तियों का एक सुनिश्चित बाह्य रूप, उनका एक बाहरी मूल्य है; प्रत्येक सांत बाह्य रूप का वास्तवितक मूल्य तो यह है कि वह बाह्य प्रकृति के कर्मों और सांसारिक आत्म-अभिव्यक्त् में चाहे जैसा हो पर अपनी बाह्य आत्म-सत्ता में अनंत ही है। यदि हम अधिक गौर से देखें तो मनुष्य सर्वथा अकेला नहीं है, वह सर्वथा पृथक रहने वाला स्वतः स्थित व्यक्ति नहीं है, बल्कि किसी मतिविशेष और शरीर विशेष में स्वयं मानवजाति है; और स्वयं मानवजाति भी स्वतःस्थित सबसे पृथक जाति नहीं है, बल्कि भूमा विश्वपति ही मानवजाति के रूप में मूर्तिमान हैं; इस रूप में वे कतिपय संभावनाओं को क्रियान्वित करते हैं, आधुनिक भाषा में कहें तो अपनी अभिव्यक्ति की शक्तियों को प्रस्फुटित और विकसित करते हैं, पर जो कुछ विकसित होकर आता है वह स्वयं अनंत होता है, स्वयं आत्मा होता है।आत्मा से हमारा अभिप्राय है उस स्वयंभू सत्ता से जिसमें चेतना की अनंत शक्ति और अपार आनंद निहित हैं; आत्मा यही है और यदि यह न हो तो कुछ भी नहीं है अथवा कम-से-कम मनुष्य और जगत् के साथ उसका कुछ भी संबंध नहीं है और इसलिये मुनष्य और जगत् का उससे कोई संबंध नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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