गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द15.अवतार की संभावना और हेतु
जगत् का स्वतंत्र चलने वाला विधान-मात्र होना तो दूर रहा, जिसकी शक्तियों की गति में या जिसके मन-प्राण शरीर से हेने वाले कर्मों में हस्तक्षेप करने वाला कोई आत्मा या पुरुष नहीं है, है केवल कोई आदि तटस्थ आत्मत्व की सत्ता जो इस जगत् में नहीं, इसके बाहर या ऊपर कहीं निष्क्रिय रूप से रहती है, यह सारा जगत् और इसका प्रत्येक अणु ही कर्मरत भागवत शक्ति है और इसकी प्रत्येक गति का निर्धारण और नियमन उसी भागवत शक्ति के द्वारा होता है, इसके प्रत्येक रूप में उसीका निवास है, प्रत्येक जीव और उसका अंत: करण उसी का है; सब कुछ ईश्वर में है और उसीमें सब कुछ होता रहता है, सबमें वही है, वही कर्म करता और अपनी सत्ता दर्शाता है; प्रत्येक प्राणी छद्वेश में नारायण ही है। अजन्मा जन्म नहीं ले सकता यह बात तो दूर रही, यहाँ तो प्रत्येक जीव अपने व्यक्तित्व के अंदर रहते हुए भी वही अजन्मा आत्मा है, वही सनातन है जिसका न कोई आदि है न अंत। और अपने मूल अस्तित्व और अपनी विश्व-व्यापकता में सभी जीव वही है अजन्मा आत्मा है, जिसके आकार-ग्रहण और आकर-परिवर्तन का नाम ही जन्म और मृत्यु है। इस जगत् का सारा रहस्यमय व्यापार यही तो है कि अपूर्णता को पूर्ण कैसे धारण किये हुए हैं? पर यह अपूर्णता धारण किये गये मन और शरीर के रूप और कर्म में ही प्रकट होती है, यहाँ के बाह्म जगत् में ही रहती है; जो इसे धारण करता है, उसमें कोई अपूर्णता नहीं होती; जैसे सूर्य, जो सबको आलोकित करता है, उसमें प्रकाश या दर्शन-शक्ति की कोई कमी नहीं हेाती, कमी होती है व्यक्ति-विशेष की दर्शनेंद्रिय की क्षमता में। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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