गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द15.अवतार की संभावना और हेतु
हे परंतप, मैं अपनी सत्ता यद्यपि अज और अविनाशी हूं, सब भूतों का स्वामी हूं, तो भी अपनी प्रकृति को अपने अधीन रखकर आत्म-माया से जन्म लिया करता हूँ। जब-जब धर्म की ग्लीनि होती है और अधर्म का उत्थान, तब-तब मैं अपना सृजन करता हूँ साधु पुरुषों को उबारने और पापात्माओं को नष्ट करने और धर्म की संस्थापना करने के लिये मैं युग-युग में जन्म लिया करता हूँ। मेरे दिव्य जन्म और दिव्य कर्म को जो कोई तत्त्वतः जानता है, वह इस शरीर को छोड़कर पुनर्जन्म को नहीं, बल्कि, हे अर्जुन, मुझको प्राप्त होता है। राग, भय और क्रोध से मुक्त, मेरे ही भाव में लीन, मेरा ही आश्रय लेने वाले, ज्ञानतप से पुनीत अनेकों पुरुष मेरे भाव को ( पुरुषोत्तम-भाव को) प्राप्त हुए हैं। जो जिस प्रकार मेरी ओर आते हैं, उन्हें मैं उसी प्रकार प्रेमपूर्वक ग्रहण करता हूँ। हे पार्थ, सब मनुष्य सब तरह से मेरे ही पथ का अनुसरण करते हैं।”[1] गीता अपने कथन जारी रखते हुए बतलाती है कि बहुत से मनुष्य अपने कर्मों की सिद्धि चाहते हुए, देवताओं के अर्थात् एक परमेश्वर के विविध रूपों और व्यक्तित्वों के प्रीतयर्थ यज्ञ करते हैं, क्योंकि कर्मों से-ज्ञानरहित कर्मों से-होने वाली सिद्धि मानव-जगत् में सुगमता से प्राप्त होती है; वह केवल उसी जगत् की होती हैं। परंतु दूसरी सिद्धि, अर्थात् पुरुषोत्तम के प्रीत्यर्थ किये जाने वाले ज्ञानयुक्त यज्ञ के द्वारा मनुष्य की दिव्य आत्मपरिपूर्णता, उसकी अपेक्षा अधिक कठिनता से प्राप्त होती है; इस यज्ञ के फल सत्ता की उच्चतर भूमिका के होते हैं और जल्दी पकड़ में नहीं आते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 4.5-11
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