गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द13.यज्ञ के अधीश्वर
अहंकार को जीत लेने के बाद भी यज्ञ के भोक्ता भगवान् तो रहते ही हैं, इसलिये यज्ञ का उद्देश्य फिर भी रहता है। नैर्व्यक्तिक ब्रह्म ही अंतिम वचन या हमारी सत्ता का सर्वोत्तम रहस्य नहीं है; क्योंकि नैव्यक्तिक और सव्यक्तिक, सांत और अनंत उसी भगवत सत्ता के दो विपरीत पर सहवर्ती पहलू हैं जो इन भेदों से सीमित नहीं है और एक साथ दोनों हैं। परमेश्वर एक, चिर-अव्यक्त अनंत है और वे अपने-आपको सांत में अभिव्यक्ति करने के लिये सदा स्वतः प्रेरित है; वे वह महान् नैव्द्धर्यक्त्कि पुरुष हैं जिनके सब व्यक्त्त्वि आशिंक रूप हैं; वे वह भगवान् हैं जो मानव-प्राणी में अपने-आपको प्रकट करते हैं, वे प्रभु हैं जो मनुष्य के हृदेश में निवास करते हैं। ज्ञान हमें उन्हीके एक नैर्व्यक्तिक ब्रह्म मे सब प्राणियों को देखने की शिक्षा देता है, क्योंकि इस तरह हम पृथग्भूत अहंभाव से मुक्त होते हैं और तब मुक्तिदायक नैर्व्यक्तितत्त्व के द्वारा उनको इन प्रभु के अंदर देखते हैं, आत्मा के अंदर और तब मेरे अंदर। हमारा अहंकार, हमारे बंधनकारक व्यष्टिभाव ही उन प्रभु को पहचानने का रास्ता रोके रहते हैं जो सबके अंदर हैं और सब जिनके अंदर है; क्योंकि व्यष्टिभाव के अधीन होने के कारण हम उनके ऐसे खंड-खंड स्वरूपों को देख पाते हैं जिन्हें वस्तुओं के सात रूप देखने दें। हमें उनके पास अपने निम्न व्यष्टिभाव के द्वारा नहीं, बल्कि अपनी सत्ता के उच्च, अनंत और नैर्व्यक्तिक अंश के द्वारा पहुँचना होगा; और वह हम आत्मा बनकर ही, जो सबके अंदर एक है और जिसकी सत्ता में सारा जगत् अवस्थित है, उन प्रभू को पा सकते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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