गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द12.यज्ञ-रहस्य
मुमुक्षु को भी आनुष्ठानिक यज्ञ करते रहना चाहिये, यद्यपि व हो आसक्ति-रहित, आनुष्ठानिक यज्ञों और शास्त्रोक्त कर्मों को निःसंग होकर करने से ही जनक जैसों को आत्मसिद्धि और मुक्ति प्राप्त हुई। स्पष्ट है कि गीता का यह अभिप्राय नहीं हो सकता, क्योंकि यह बाकी ग्रंथ के विरुद्ध होगा। यज्ञ शब्द की जो उद्बोधक व्याख्या चौथे अध्याय में की गयी है उसके बिना भी जो कुछ यहाँ कहा गया है उसी में यज्ञ शब्द की व्यापकता का सकेंत मिलता है। यहाँ कहा गया है कि यज्ञ कर्म से उत्पन्न होता है कर्म ब्रह्म से ब्रह्म अक्षर से इसलिये सर्वगत ब्रह्म यज्ञ में प्रतिष्ठित हैं यहाँ पर इसलिये शब्द का पूर्वापर संबंध जिस ब्रह्म से सब कर्म उत्पन्न होता है उस ब्रह्म को हमें प्रचलित वेदवादियों के शब्द ब्रह्म के अर्थ में नहीं बल्कि वेद का रूपकात्मक अर्थ करके सर्जनकारी शब्द को सर्वगत ब्रह्म के साथ, शाश्वत पुरुष के साथ, सब भूतों में जो एक आत्मा है उसके साथ तथा समस्त भूतों की क्रियाओं के अंदर प्रतिष्ठित जो कुछ है उसके साथ एक समझना होगा। वेद है भगवद्विषयक ज्ञान आगे चलकर एक अधय में श्रीकृष्ण कहेंगें कि मैं वह हूँ जो सब वेदों का वेद्य अर्थात् ज्ञातव्य तत्त्व है वेदेश्षु वेद्यः पर उनके विषय का यह ज्ञान प्रकृति के द्वारा होन वाले त्रि.गुणात्मक कर्मों के अंदर उनकी जो सत्ता है उसकी का ज्ञान है? ऐसा कहा जा सकता है। है कि, प्रकृतिगत कर्मों में स्थित यह ब्रह्म या भगवतत्त्व, उस अक्षर ब्रह्म या पुरुष से उत्पन्न हुआ है जो निस्त्रगुण्य है प्रकृति के सब गुणों और गुण कर्मो के ऊपर है। ब्रह्म एक है, पर उसकी आत्म अभिव्यक्त् के दो पहलू हैं; एक है अक्षर पूस्यष आत्मा और दूसरा सब भूतों में कर्मों का स्पष्ट और प्रर्वतक सर्वभूतानि, पदार्थमात्र की अचल सर्वस्थित निष्क्रिय पुरुष और प्रकृतिस्थ सक्रिय पुरुष ये ही ब्रह्म के दो भाव हैं अक्षर और क्षर। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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