गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द11.कर्म और यज्ञ
परंतु कठिनाई यह है कि हमारा वर्तमान स्वभाव, और कर्मों के प्रेरक तत्त्व कामना के होते हुए निष्काम कर्म संभव है क्या? जिसे हम साधारणतया निःस्वार्थ कर्म कहते हैं वह यथार्थ में निष्काम नहीं होता उसमें छोट-मोटे वैयक्तिक स्वार्थ की जगह दूसरी बृहत्तर वासनाएं होती हैं, उदाहरणार्थ, पुण्य-संचय, देश-सेवा मानव- समाज की सेवा। फिर कर्म मात्र ही, जैसा कि भगवान् आग्रहपूर्वक कहते हैं, प्रकृति के गुणों द्वारा ही हुआ करता है; शास्त्र अनुकूल आचरण करते हुए भी हम अपने स्वभाव के ही अनुकूल कर्म करते हैं, प्रायः शास्त्रोक्त कर्म के पीछे हमारी इच्छाऐं पूर्वनिश्चित मत, आवेश, अहंकार, वैयक्त्कि, राष्ट्रीय और संप्रदायिक अभिमान नमत और अुनराग छिपे होते हैं यदि मान लीजिए ऐसा न भी हो और अत्यंत विशुद्ध भाव से ही सशक्त कर्म किया जाये तो भी ऐसे कर्म में हम अपनी प्रकृति की पसंद का ही अनुसरण करते हैं,क्योंकि यदि हमारी प्रकृति ऐसे कर्म के अनुकूल न होती, यदि हमारी बुद्धि और हमारे संकल्प पर गुणों के किसी दूसरे संघात की क्रिया हुई होती तो हम शास्त्रोक्त कर्म करने की ओर कदापि न झुकते, बल्कि अपनी मौज या अपनी बुद्धि की धारणा के अनुसार ही अपना जीवन व्यतीत करते अथवा सामाजिक जीवन का त्याग कर एकांतवास करते या संन्यासी हो जाते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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