गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
श्रीऋषभदेवाचार्य:- श्रीनिम्बार्काचार्य के प्रादुर्भाव के विषय में जैसे केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है वैसे ही श्रीऋषभदेवाचार्य के विषय में भी ठोस प्रमाण के अभाव में केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। ऋषभदेव के प्रादुर्भाव के विषय में ऐसी विश्रुति है कि यह “नाभि” नाम के सम्राट के पुत्र थे। इस सम्राट के कोई पुत्र न होने के कारण इसने पुत्र-कामना से यज्ञ किया जिससे उसकी धर्मपत्नी “मरुदेवी” के गर्भ से एक सुगठित शरीर, बल, तेज, ऐश्वर्ययुक्त पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम ऋषभ[1] रक्खा गया। जब ऋषभदेव बड़े हो गए तो नाभिराज अपने राज्य पर ऋषभदेव को अभिषिक्त कर तप करने बदरीकाश्रम चले गए। ऋषभदेव की राज्यव्यवस्था, शाशन-प्रणाली तथा लोकप्रियता के विषय में श्रीमद्भागवत में लिखा है कि:- “भगवान ऋषभदेव के शासन में कोई भी व्यक्ति अपने प्रभु के प्रति प्रतिदिन बढ़ने वाले अनुराग के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु की कामना नहीं करता था, और न कोई किसी अन्य व्यक्ति की वस्तु की तरफ देखता था, हर व्यक्ति के लिए पराई वस्तु आकाश-कुसुम के समान थी।” ऋषभदेव के तेज, पराक्रम व योगबल से प्रभावित हो देवेन्द्र इन्द्र ने अपनी पुत्री जयन्ती का विवाह उनसे किया जिससे ऋषभदेव के सौ पुत्र उत्पन्न हुए। सबसे बड़े पुत्र का नाम भरत था, भरत से छोटे कुशावर्त, इलावर्त, ब्रह्मावर्त, मलय, केतु, भद्रसेन, इन्द्रस्पृक विदर्भ और कीकट थे, जो प्रथक प्रथक देशों के नरेश थे, इनके देश इनके नाम से ही प्रसिद्ध हुए। यह सभी नरेश तपस्वी व भगवद्भक्त थे। इन राजकुमारों के अतिरिक्त, कवि, हरि, अन्तरीक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, आविर्होत्र, द्रुमिल, चमस, और करभाजन नाम के राजकुमार योगी एवं संन्यासी हो गए, बाकी इक्यासी पुत्र वेदज्ञ वेदान्ती, कर्मकाण्डी ब्राह्मण थे; ऋषभदेव के यह समस्त पुत्र भगवद्भक्त थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रेष्ठ
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