गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 125

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण


समर्पण
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“पत्रं पुष्पं फलं तोय से,
संतुष्ट होते उपवन आप तो।
किन्तु आपके अकिंचन पास तो,
पत्र-पुष्प भी हैं न अर्पण को।।


पत्र-पुष्पाऽदि दिये आप ही ने तो,
आपके दिये ही अर्पण कर आपको।
अन्योन्य तुष्टि हित करूं क्या यज्ञ वो?
उपदिष्ट किया जो आपने अर्जुन को।।


अन्योन्य तुष्टि ही मान्य यदि आपको,
तो पत्र-पुष्प-फल-तोयस्थान में।
दिया जो कुछ है आपने मुझको,
करता समर्पण “गीताऽमृत” रूप में।।


द्रव्य-मय यज्ञ यदि रुचते नहीं तो,
पत्र-पुष्प ही से होते संतुष्ट तो।
आत्म-समर्पण ही अभीष्ट यदि तो,
करदो चरितार्थ स्वकीयोपदेश को।।

ग्रहण कर “अमृत” सह नारायण!
गुलाब को शरण दे भगवन!
पद-पद्म में स्वःआत्म को।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
- गीतोपदेश के पश्चात भागवत धर्म की स्थिति 1
- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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