“पत्रं पुष्पं फलं तोय से,
संतुष्ट होते उपवन आप तो।
किन्तु आपके अकिंचन पास तो,
पत्र-पुष्प भी हैं न अर्पण को।।
पत्र-पुष्पाऽदि दिये आप ही ने तो,
आपके दिये ही अर्पण कर आपको।
अन्योन्य तुष्टि हित करूं क्या यज्ञ वो?
उपदिष्ट किया जो आपने अर्जुन को।।
अन्योन्य तुष्टि ही मान्य यदि आपको,
तो पत्र-पुष्प-फल-तोयस्थान में।
दिया जो कुछ है आपने मुझको,
करता समर्पण “गीताऽमृत” रूप में।।
द्रव्य-मय यज्ञ यदि रुचते नहीं तो,
पत्र-पुष्प ही से होते संतुष्ट तो।
आत्म-समर्पण ही अभीष्ट यदि तो,
करदो चरितार्थ स्वकीयोपदेश को।।
ग्रहण कर “अमृत” सह नारायण!
गुलाब को शरण दे भगवन!
पद-पद्म में स्वःआत्म को।।