गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 1130

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-18
मोक्ष-संन्यास-योग
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अध्याय 18 का यह श्लोक[1] गीता में उपदिष्ट निम्नलिखित श्लोकों का समाहार उपसंहार रूप में हैः-

अध्याय 5 श्लोक 7, 10 व 13; अध्याय 6 श्लोक 47; अध्याय 8 श्लोक 7;

अध्याय 9 श्लोक 22, 27, 28 व 34; अध्याय 12 श्लोक 8, 9, 10, 14, 16, 17, 19, 20;

अध्याय 18 श्लोक 49, 51, 52, 53, 54 व 64।

अध्याय 13 श्लोक 10 में जिस अव्यभिचारिणी-भक्ति का निर्देश भगवान कृष्ण ने किया है वही यथार्थ में भक्ति-मार्ग है। इस भक्ति-मार्ग का भिन्न-भिन्न आचार्यों ने विभिन्न रूप से व्याख्या कर समन्वय किया है; यथा भगवान निम्बार्काचार्य ने द्वैताद्वैतवाद द्वारा; भगवान ऋषभदेव, बुद्ध व शंकराचार्य ने अद्वैतवाद द्वारा; श्रीमध्वाचार्य ने द्वैतवाद द्वारा; श्रीरामानुजाचार्य ने विशिष्टाद्वैतवाद द्वारा; श्रीवल्लभाचार्य ने शुद्धद्वैतवाद द्वारा; तथा श्री चैतन्य-महाप्रभु ने अचिन्त्य-भेदाभेद-वाद द्वारा गीतोपदिष्ट भक्ति-मार्ग का प्रतिपादन किया है।  

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 66

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
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5. कर्म-संन्यास योग 474
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9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
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16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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