गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
मोक्ष-संन्यास-योग
अध्याय 18 का यह श्लोक[1] गीता में उपदिष्ट निम्नलिखित श्लोकों का समाहार उपसंहार रूप में हैः- अध्याय 5 श्लोक 7, 10 व 13; अध्याय 6 श्लोक 47; अध्याय 8 श्लोक 7; अध्याय 9 श्लोक 22, 27, 28 व 34; अध्याय 12 श्लोक 8, 9, 10, 14, 16, 17, 19, 20; अध्याय 18 श्लोक 49, 51, 52, 53, 54 व 64। अध्याय 13 श्लोक 10 में जिस अव्यभिचारिणी-भक्ति का निर्देश भगवान कृष्ण ने किया है वही यथार्थ में भक्ति-मार्ग है। इस भक्ति-मार्ग का भिन्न-भिन्न आचार्यों ने विभिन्न रूप से व्याख्या कर समन्वय किया है; यथा भगवान निम्बार्काचार्य ने द्वैताद्वैतवाद द्वारा; भगवान ऋषभदेव, बुद्ध व शंकराचार्य ने अद्वैतवाद द्वारा; श्रीमध्वाचार्य ने द्वैतवाद द्वारा; श्रीरामानुजाचार्य ने विशिष्टाद्वैतवाद द्वारा; श्रीवल्लभाचार्य ने शुद्धद्वैतवाद द्वारा; तथा श्री चैतन्य-महाप्रभु ने अचिन्त्य-भेदाभेद-वाद द्वारा गीतोपदिष्ट भक्ति-मार्ग का प्रतिपादन किया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 66
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