गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
मोक्ष-संन्यास-योग
योग दर्शन का भारतीय दर्शन पर गहरा प्रभाव है। योग-सिद्धि से योगी अलौकिक सिद्धि प्राप्त करता है उसे अणिमा, गरिमा, लघिमा, महिमा आदि सिद्धियाँ सिद्ध हो जाती हैं और वह वर्तमान, भूत, भविष्य का ज्ञाता व सर्वज्ञ हो जाता है। एकाग्रता[1] योग का अंग है। केवल एकाग्रता होना “व्यावहारिक योग” होता है। एकाग्रता के साथ यदि अहंभाव का या ममत्व का लव-लेश भी न हो तो वह “पारमार्थिक-योग” होता है। गीता का साम्य-गर्भित-योग यही है। ज्ञान के बिना कोरा योग भी निरर्थक होता है इस ही लिए ज्ञान-योग को श्रेष्ठ कहा गया है; योग के अभाव में ज्ञान अस्पष्ट रहता है इस कारण योग को ज्ञान से श्रेष्ठ बताया गया है[2] योग ज्ञान की कुंजी है योगी ही सच्चा ज्ञानी होता है[3] योग- वाशिष्ठ में योग-हीन ज्ञानी को ज्ञानियों मध्य अधम होना कहा गया है। जिस योग का वर्णन उपनिषदों व सूत्रों में किया गया है उस ही योग का समावेश गीता में कर्म, भक्ति और ज्ञान में किया गया है। योग के मौलिक सिद्धान्तों और प्रक्रियाओं का वर्णन गीता के छठे व तेरहवें अध्याय में किया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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