गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 1117

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-18
मोक्ष-संन्यास-योग
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योग दर्शन का भारतीय दर्शन पर गहरा प्रभाव है। योग-सिद्धि से योगी अलौकिक सिद्धि प्राप्त करता है उसे अणिमा, गरिमा, लघिमा, महिमा आदि सिद्धियाँ सिद्ध हो जाती हैं और वह वर्तमान, भूत, भविष्य का ज्ञाता व सर्वज्ञ हो जाता है।

एकाग्रता[1] योग का अंग है। केवल एकाग्रता होना “व्यावहारिक योग” होता है। एकाग्रता के साथ यदि अहंभाव का या ममत्व का लव-लेश भी न हो तो वह “पारमार्थिक-योग” होता है। गीता का साम्य-गर्भित-योग यही है। ज्ञान के बिना कोरा योग भी निरर्थक होता है इस ही लिए ज्ञान-योग को श्रेष्ठ कहा गया है; योग के अभाव में ज्ञान अस्पष्ट रहता है इस कारण योग को ज्ञान से श्रेष्ठ बताया गया है[2] योग ज्ञान की कुंजी है योगी ही सच्चा ज्ञानी होता है[3] योग- वाशिष्ठ में योग-हीन ज्ञानी को ज्ञानियों मध्य अधम होना कहा गया है। जिस योग का वर्णन उपनिषदों व सूत्रों में किया गया है उस ही योग का समावेश गीता में कर्म, भक्ति और ज्ञान में किया गया है। योग के मौलिक सिद्धान्तों और प्रक्रियाओं का वर्णन गीता के छठे व तेरहवें अध्याय में किया गया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ध्यान
  2. अध्याय 4 श्लोक 46
  3. अध्याय 5 श्लोक 5

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गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
- गीतोपदेश के पश्चात भागवत धर्म की स्थिति 1
- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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